Book Title: Updesh Prasad
Author(s): Jayanandsuri, Raivatvijay
Publisher: Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 410
________________ ३६५ उपदेश-प्रासाद - भाग १ अश्व-शाला से शोभित कुबेर के गृह को देखकर प्रधानों के द्वारा दिखाये गये स्फटिक शिला से निर्मित चैत्यालय में गया । वहाँ चैत्य में मरकत-मणिमय श्रीनेमि जिन को नमस्कार कर रत्न और स्वर्ण के कलश, थाल, आरती, मंगल-दीपादि देव-पूजा उपकरण आदि को देखकर कुबेर के द्वारा लिखित व्रत टिप्पनी को पढ़ा । वहाँ परिग्रह के प्रमाण में छह करोड़ स्वर्ण, मोतीयों के आठ सो तुला, महामूल्यवान् दस मणि, घी-तेल आदि और धान्य की प्रत्येक से दो हजार कुंभ खारी, पचास हजार वाहन, हजार हाथी, अस्सी हजार गाय, हल, दूकानों की श्रेणि, घर, यान-पात्र और बैल-गाडियों के प्रत्येक के भी पाँच-पाँच सो । पूर्वजो के द्वारा उपार्जित की गयी इतनी लक्ष्मी मेरे गृह में हो । पुनः इससे निज भुजाओं से उपार्जित की गयी लक्ष्मी को पात्रसात् करूँगा । ___ इस प्रकार के ऋद्धि पत्र के वांचन से आनंदित हुआ राजा जब विस्मय सहित गृह के आंगण में आया, तब कुबेर की माता गुणश्री रुदन करती हुई देखी गयी कि हे पुत्र कुबेर, गुणों की खान ! तुम कहाँ गये हो ? मुझे उत्तर दो । हा वत्स ! लक्ष्मी को देखो, तेरे बिना राज-गृह में जा रही है। उसे सुनकर राजा ने सोचा कि आर्य जन जो इस प्रकार से कहते है कि-राज्य नरकान्तवाला होता है, वह निश्चय ही रोती हुई स्त्री के धन के आकर्षण के पाप से है। कुबेर की माता, पत्नी आदि के आक्रन्द को सुनकर राजा ने कहा कि- हे माता ! तुम क्यों शोक कर रही हो ? क्योंकि कीट से लेकर इंद्र तक प्राणियों को मरण निश्चित ही है, बांधवों का संबंध एक वृक्ष पर रहे हुए बहुत पक्षियों के समूह के संगति के समान है, मृत हुए का वापिस आना प्रायः कर पत्थर के तल

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