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उपदेश-प्रासाद
भाग १
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होती, तो भी श्रुत के वचनों से अवश्य ही श्रद्धा करनी चाहिए, क्योंकि इहलोक में दो प्रकार से अनुपलब्धि हैं और वहाँ एक असत् वस्तु की है, जैसे कि खरगोश के सींग आदि के समान हैं । द्वितीय सत् भी वस्तुओं की अनुपलब्धि होती हैं और वह यहाँ पर अष्ट प्रकार से हैं, जैसे कि
अति दूर होने से, यह प्रथम अनुपलब्धि है और देश, काल, स्वभाव के विप्रकर्ष से वह अनुपलब्धि तीन प्रकार से हैं । वहाँ कोई पुरुष ग्रामांतर में गया दिखायी नहीं दे रहा है, तो क्या वह नहीं हैं ? हैं ही, परन्तु देश के विप्रकर्ष से उपलब्धि नहीं है । इस प्रकार से ही समुद्र से पार मेरु आदि विद्यमान होते हुए भी दिखायी नहीं देते हैं । तथा काल के विप्रकर्ष से अतीत निज पूर्वज आदि और होने वालें पद्मनाभ आदि जिन प्राप्त नहीं किये जा सकतें हैं । तथा स्वभाव के विप्रकर्ष से आकाश के जीव पिशाच आदि दिखायी नहीं देते है और वें नहीं हैं ऐसा नहीं हैं ।
तथा अति सामीप्य से, यह दूसरी अनुपलब्धि हैं, जैसे कि अति समीपता के कारण से नेत्र का काजल दिखायी नहीं देता, तो क्या वह नहीं हैं ? है ही ! तथा इन्द्रिय के घात से, यह तीसरी अनुपलब्धि हैं, जैसे कि - अन्ध, बधिर आदि रूप, शब्द आदि प्राप्त नहीं करतें हैं, तो क्या वें नहीं हैं ? है ही ! तथा मन के अनवस्थान से यह चौथी अनुपलब्धि हैं, जैसे कि - अनवस्थित चित्तवाला गये हुए गज को भी नहीं देखता है, तो क्या वह नहीं हैं ? हैं ही ! तथा सौक्ष्म्य से, यह पाँचवी अनुपलब्धि हैं, जैसे कि - सूक्ष्मता के कारण से जल के अंदर रहे हुए त्रस - रेणु अथवा परमाणु, द्वयणुकादि अथवा सूक्ष्म निगोद आदि दिखायी नहीं देतें हैं, तो क्या वें नहीं हैं ? है ही ! तथा आवरण से, यह छट्ठी अनुपलब्धि हैं, जैसे कि- दीवार के अंतर में