Book Title: Updesh Prasad
Author(s): Jayanandsuri, Raivatvijay
Publisher: Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 387
________________ उपदेश-प्रासाद भाग १ ३७२ को विमान में स्थित और देव रूप में हुए उन्हें वह साक्षात् दिखाता था। तत्पश्चात् सभी अत्यंत आदरवाले हो वैसे कीये । इस प्रकार से उन निर्दयीयों ने धीरे-धीरे से मनुष्य हिंसा का भी प्रवर्तन किया । माया से मोहित कर महाकाल ने यज्ञ में पत्नी सहित सगर को होमा । पिष्पलाद ने स्व माता-पिता का यज्ञ किया । इस प्रकार से अनार्य - वेद प्रवृत्त हुए । भरत चक्रवर्ती ने तो माणवक निधि से उद्धृत कर प्रति-दिन भोजन कराये जाते श्रावकों के पठन के निमित्त श्रीतीर्थंकर के स्तुतिरूप और श्रावक धर्म के प्रतिपादक आर्य वेदों को कीये थें। वसु राजा, ब्राह्मण और पिष्पलाद आदि असत्य वाक्य से अधम गति में गये । हितेच्छु उनका निदर्शन हृदय में रखकर असत्य वचन को छोड़ दें । इस प्रकार से संवत्सर के दिन परिमित उपदेश-संग्रह नामक उपदेश-प्रासाद ग्रन्थ की वृत्ति में छट्ठे स्तंभ में पचहत्तरवाँ व्याख्यान संपूर्ण हुआ । छिहत्तरवाँ व्याख्यान अब असत्य के भेद कहे जाते हैं आद्य अभूतोद्भावन, द्वितीय भूत - निह्नव, तृतीय अर्थान्तर और चतुर्थ गर्हा है। इन चारों प्रकार के असत्य को नरकादि दुःखों का हेतु जानकर असत्य के त्याग रूप व्रत को ग्रहण करना चाहिए जिससे कि सौख्यादि को प्राप्त कर सकें । अभूतोद्भावन जैसे कि- आत्मा सर्व व्यापी है, धान्य अथवा चावल मात्र है । भूत - निह्नव जैसे कि - आत्मा नहीं है, पुण्य नहीं है और पाप नहीं है, इत्यादि । अर्थान्तर जैसे कि - गाय को अश्व

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