Book Title: Updesh Prasad
Author(s): Jayanandsuri, Raivatvijay
Publisher: Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 393
________________ ३७८ उपदेश-प्रासाद - भाग १ जो देखती है, वह नहीं कहती और जो कहती है, वह नहीं देखती है। यह सुनकर उन्होंने सोचा कि- लोक से बाह्य मुखवाला यह क्या जानता है ? इस प्रकार से कहकर वेंअन्यत्र चले गये । हिरणों का उद्धार हुआ । ऋषि स्वर्ग में गये । प्रमाद से पर पीड़ा का उपदेश अतिचार है अथवा युद्ध के लिए झूठे प्रपञ्च का शिक्षण, इस प्रकार से यह प्रथम अतिचार है। _ विचारे बिना सहसा अभ्याख्यान-असद् दोष का अध्यारोपण, जैसे कि-तुम चोर हो अथवा पर-स्त्री गमनकारी हो इत्यादि किसी पुरुष को नहीं कहना चहिए । अन्य तो रहस्य अभ्याख्यान कहते है और उसकी व्याख्या यह है, रहः- एकान्त, उसमें हुआ वह रहस्य । अभ्याख्यान - असद्का अध्यारोपण और कहना है । जैसे कि- यदि वृद्धा स्त्री है, तो उसे कहता है कि- यह तेरा भर्ता तरुणीयों में आसक्त हुआ है। अब तरुणी हो तो उसे इस प्रकार से कहता है- यह तेरा भर्ता कुमारीयों में रागी हुआ है । अथवा दंपतीयों के आगे रहस्य में हुई चेष्टा को हास्यादि से कहना न कि तीव्र संक्लेश से । जो कि कहते है कि यदि जानते हुए सहसा, अभ्याख्यान आदि करे तो भंग होता है, यदि पुनः अनाभोग आदि से करे तो अतिचार होता है । इस प्रकार से द्वितीय अतिचार है, तथा अभ्याख्यान से गधा होता है अथवा निन्दक कुत्ता होता है । पर भोक्ता कृमि होता है और मत्सरी कीट होता है । उत्तम मति दूषण को प्राप्त नहीं करती । मध्यम मति स्पर्श करती है किन्तु कहती नहीं है । अधम मति समीप को देखकर कहती है और अधमाधम मति सहसा ही अत्यंत रटन करती है । सहसा अभ्याख्यान के ऊपर यह लौकिक संबंध है

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