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उपदेश-प्रासाद - भाग १
२०५ कौन-सा अपराध किया हैं ? तब एकराज-पुरुष ने उसके स्वरूपको कहा कि- इसने चोरी की हैं । एक पत्नी को उसे देखकर दया आने से राजा के पास में पूर्व में दीये हुए वर को माँगा कि- यह चोर एक दिन के लिए छोड़ा जाय । राजा ने भी उसे स्वीकार किया । उस राजपत्नी ने स्नान, भोजन, सत्कार आदि पूर्वक चोर को अलंकारों से अलंकृत किया । और हजार दीनारों के व्यय से शब्द आदि विषयों को प्राप्त कराएँ, एक दिन तक उसका पालन किया । द्वितीय दिन द्वितीय राज-पत्नी ने लाख दीनारों के व्यय से उसका लालन किया । तृतीय दिन तृतीय राज-पत्नी ने करोड़ दीनारों के व्यय से उस चोर का सत्कार किया । चतुर्थ राज-पत्नी ने राजा की अनुमति से अनुकंपा से मरण से उस चोर का रक्षण किया, अन्य कुछ-भी उपकार नहीं किया । तब अन्य पत्नीयाँ उस पर हँसने लगी कि- इसने कुछ-भी नहीं दिया । उपकार के विषय में उनका अत्यंत विवाद होने पर राजा ने चोर को ही बुलाकर पूछा कि- किसने तेरे पर बहुत उपकार किया हैं ? उसने कहा कि- मरण के भय से पीडित हुए मैंने स्नान आदि सुख को लेश से भी नहीं जाना था । सिंह के समीप में बाँधे हुए हरे जौ के भोजन करनेवालें बकरे के समान मैंने दुःख का ही अनुभव किया था । किन्तु मैं आज शुष्क, नीरस, तृण प्रायः सामान्य आहार से भी व्यवसायी के गृह में बाँधे हुए गाय के बछड़े के समान जीव की प्राप्ति से सुख का अनुभव कर रहा हूँ। उससे मैं आज नाच रहा हूँ। यह सुनकर राजा ने अभयदान की प्रशंसा की।
पीड़ा की आस्थावाली राजा की स्त्रीयों ने चोर को छुड़ाया था, उसके समान ही नित्य अनुकंपा करनी चाहिए । उससे यह शुद्ध सम्यग् दृष्टि का चौथा लक्षण पहचाना जाता हैं।
इस प्रकार उपदेश-प्रासाद में तृतीय स्तंभ में चवालीसवाँ व्याख्यान संपूर्ण हुआ।