Book Title: Tulsi Prajna 2002 01 Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya Publisher: Jain Vishva Bharati View full book textPage 6
________________ जैनधर्म का प्राण-तत्त्व : अहिंसा - नीरज जैन अहिंसा किसी मंदिर में या किसी तीर्थ-स्थान पर जाकर सुबह-शाम सम्पन्न किया जाने वाला कोई अनुष्ठान नहीं है। वह आठों-याम चरितार्थ किया जाने वाला एक सम्पूर्ण जीवन-दर्शन है । वह संसार के सभी धर्मों का मूल है। धर्म की परिभाषा यदि एक ही शब्द में करने की आवश्यकता पड़े तो अहिंसा के अतिरिक्त कोई दूसरा शब्द नहीं है जो उस गरिमा को वहन कर सके। अहिंसा में ऐसी सामर्थ्य है कि वह विषमता से दहकते हुए चित्त में समता और शांति के फूल खिला सकती है। मनुष्य प्रकृति का सर्वश्रेष्ठ प्राणी है परन्तु उसे एक खतरा भी है । नारी कोख से जन्म लेकर भी उसका जीवनभर मनुष्य बने रहना निश्चित नहीं है । पशु-पक्षियों को ऐसा कोई भय नहीं। वे जिस रूप में जन्मते हैं, मरने तक उसी रूप में बने रहते हैं। पर मनुष्य के साथ ऐसा नहीं है। एक ओर यदि वह पुरुषार्थ कर ले तो नर से नारायण बनने की राह पर चल सकता है पर दूसरी ओर, यदि वह अधर्म और पाप के मार्ग पर कदम बढ़ा ले तो इसी चोले में रहते हुए उसे दानव या पशु बनते भी देर नहीं लगती। यदि मनुष्य को मनुष्यता के साथ गर्व से जीना है तो उसे जीवनभर साधना करनी पड़ेगी। उस साधना का नाम है अहिंसा । अहिंसा का दामन छोड़कर इन्सान का ज्यादा देर तक इन्सान बने रहना मुमकिन नहीं होता। आज दुनिया में आतंकवाद, लूटमार और अराजकता का जो नंगा नाच हो रहा है उसका मूल कारण यही है कि कुछ अविवेकी जनों ने अपनी सनक पूरी करने के लिए हिंसा का रास्ता अपना लिया है। उनके भीतर सुलगती हिंसा की ज्वालाओं में आज पूरी मानवता के झुलसने की आशंका होने लगी है। क्या ईश्वर हमें वह बुद्धि देगा जिसके द्वारा हम अहिंसा को उसके सही अर्थों में पहिचाने और उसे अपने जीवन में उतारने की कोशिश करें? अहिंसा मानसिक पवित्रता का नाम है। उसके व्यापक क्षेत्र में सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह आदि सभी सद्गुण समा जाते हैं, इसलिए अहिंसा को परम तुलसी प्रज्ञा जनवरी-मार्च, 2002 - 1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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