Book Title: Tulsi Prajna 2000 10
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 23
________________ "मैंने सोचा था कि प्रिय से वियुक्तों को (शायद) संध्याकाल में कोई सहारा मिल जाय; परन्तु लो, यह चन्द्र तो वैसा तप रहा है जैसा प्रलयकाल का सूर्य।" (ड) सूत्र 394 उदाहरण पद्य-क्रमाङ्क 5 अम्मि पओहर वज्जमा निच्चु जे सम्मुह थंति । महु कन्तहो समरङ्गणइ गय-घड भज्जिउ जन्ति । छाया अम्ब पयोधरौ वज्रमयौ नित्यं यौ संमुखौ तिष्ठतः । मम कान्तस्य समराङ्गणके गजघटाः भड़क्तुं यातः भाषान्तर "ओ मां! मेरे पयोधर वज्रमय हैं, तभी तो वे नित्य मेरे कान्त का सामना करते हैं और युद्ध-भूमि में गजघटा को विच्छिन्न करने जाते हैं।" यहाँ पयोधरों का युद्धभूमि में गजघटा को विछिन्न करने जाना विसंगत लगता है। अच्छा हो कि ‘गय-घड' का अर्थ 'गज-घटा' के स्थान पर 'गज-घट' = 'हाथी का कुम्भस्थल' किया जाय। अतिशयोक्ति-प्रवण अपभ्रंश कवि प्रायः कामिनी के पयोधरों की उपमा 'करिकुम्भ' से देते हैं, 'करिकुंभ-पिहुत्थणु' (चंदप्पहचरिउ 7.8.7) ‘गयघट भंजिउ जंति' को निर्विभक्तिक षष्ठी पदसमूह मानते हुए 'महु कंतहो से इसका अन्वय किया जा सकता है। तब इस पद्य का अर्थ होगा :-' "ओ माँ! मेरे पयोधर वज्रमय हैं, तभी तो ये नित्य समराङ्गण में करिकुंभ को विदीर्ण करने के लिए जाने वाले मेरे कांत के सम्मुख डटते हैं।" (च) सूत्र 396 उदाहरण-पद्य-क्रमांङ्क (1) जं दिट्ठउँ सोमग्गहणु, असईहिं हसिउँ निसंकु। पिअ-माणुस-विच्छोह-गरु, गिलि-गिलि राहु मयंकु॥ छाया यद् दृष्टं सोमग्रहणमसतीभिः हसितं निः शङ्कम् । प्रियमनुष्यविक्षोभकरं गिल गिल राहो मृगाङ्कम् ।। भाषान्तर “जब असती स्त्रियों ने चन्द्रग्रहण देखा तो वे निःशङ्क हसीं (और बोलीं) 'अरे. राहु, निगल जाओ इस चन्द्र को जो प्रियजन को विक्षुब्ध करता है।" यहाँ 'विच्छोह' का अर्थ 'वियोग' किया जाना चाहिए। देशीनाममाला (7.62) में यह अर्थ दिया हुआ है। चन्द्र, विशेषतः पूर्णचन्द्र असतियों के स्वच्छन्द रात्रि-विहार में बाधक होता है (मिलाइए : ‘असईणं दूहओ चंदो', वज्जा 98 और, ‘ता ससहर उइयउ तहिं जिरवणे, असइयणे दुहु पयडतु मणे' करकंडु चरिउ 10.9.8)। इसलिए असतियाँ चन्द्र को 'पिअमाणुसविच्छोहगरु', 'प्रियजन से वियोग कराने वाला' कहती हैं; और अब जब राहु पूर्णचन्द्र को निगल रहा है तो वे राहु की पीठ ठोंक रही हैं। पूरा पद्य निम्नलिखित रूप से अनूदित किया जा सकता है तुलसी प्रज्ञा अक्टूबर-दिसम्बर, 2000 - 17 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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