Book Title: Tulsi Prajna 2000 10
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 65
________________ पार्श्व की माता का नाम वर्मिला दिया गया है, जबकि पिता का नाम हयसेन ही निर्दिष्ट है। इसके अतिरिक्त वादिराज ने माता का नाम ब्रह्मदत्ता लिखा है । 23 उक्त विवेचन के संदर्भ में विचार करते हुए यह कहा जा सकता है कि प्राचीन काल में एक राजा के अनेक नाम होने के भी संदर्भ इतिहास में भरे पड़े हैं अथवा राजसिंहासनस्थ होने के पश्चात् नये नाम से उस राजा की कीर्ति फैलने के कारण नाम परिवर्तन की परम्परा देखी जाती है। उक्त नामों में पिता का नाम अश्वसेन और हयसेन पर्यायवाची के रूप में भी स्वीकार किया जा सकता है, किन्तु पिता के लिए विश्वसेन तथा माता के नाम वामादेवी, ब्राह्मी, ब्रह्मदत्ता वर्मादेवी 24 तथा वर्मिला आदि सभी विद्वानों की परिषद् को विचार-विमर्श का अवसर प्रदान करते T भगवान् पार्श्व ने जो चातुर्याम धर्म चलाया, वह अनगार एवं गृहवासी दोनों के लिए ग्राह्य कहा जा सकता है। क्योंकि तीर्थंकरों के द्वारा तीर्थ ( श्रमण- श्रमणी, श्रावकश्राविका ) की रचना की जाती है। उत्तराध्ययनसूत्र, व्याख्याप्रज्ञप्ति, स्थानाङ्ग आदि आगमों में 'चाउज्जाम' धर्म का उल्लेख मिलता है। 25 याम शब्द हिंसा, झूठ, चोरी एवं परिग्रह जैसी चार कुप्रवृत्तियों को पूर्णरूप से रोकने के लिए प्रयुक्त हुआ है । यह उल्लेख आगमों में मिलता है कि प्रथम और अन्तिम तीर्थंकरों को छोड़कर शेष मध्य के 22 तीर्थंकरों ने चातुर्याम धर्म का ही उपदेश किया है। 26 किन्तु इस तथ्य से भिन्न संदर्भ भी प्राप्त होता है कि महावीर से पूर्व पांच महाव्रतों का उपदेश अन्य किसी भी तीर्थंकर ने नहीं किया । 27 इस विषय में समाधान रूप उत्तराध्ययन के टीकाकार शान्त्याचार्य की उक्ति स्वीकार की जानी चाहिए कि ब्रह्मचर्यात्मक पांचवें महाव्रत सहित शेष चार धर्म ही चातुर्याम है । 28 आगम साहित्य में अनेक स्थलों पर उल्लेख मिलता है कि भगवान् पार्श्व के अनुयायियों ने भी महावीर के 5 महाव्रत स्वीकार किये थे । इसी के साथ यहां यह भी स्पष्ट करना आवश्यक है कि महावीर एवं ऋषभ ने सामायिक संयम का उपदेश न देकर छेदोपस्थापनीय संयम का उपदेश दिया तथा मध्य के शेष 22 तीर्थंकरों ने सामायिक संयम का ही उपदेश दिया। इसके लिए आगमों में ये संदर्भ दिए गये हैं कि ऋषभ और महावीर काल में वक्र एवं जड़बुद्धि शिष्यों के होने से छेदोपस्थापनीय संयम का विवेचन किया गया, जबकि मध्य 22 तीर्थंकरों के काल में सरल व ऋजुबुद्धि शिष्यों के होने से सामायिक संयम का उपदेश दिया गया। 29 यह धारणा सभी जैन ग्रन्थों में इसी रूप में पल्लवित हुई है। भगवान पार्श्व के वंश एवं कुल सम्बन्धी विवेचनों में भी भिन्न-भिन्न संदर्भ प्राप्त होते हैं। आचार्य भद्रबाहु ने लिखा है कि मुनिसुव्रत एवं अरिष्टनेमि गौतम गोत्र के थे तथा शेष 22 तीर्थंकर काश्यपगोत्रीय थे । 30 उत्तरपुराण में भी पार्श्व के इसी काश्यपगोत्र में उत्पन्न होने का उल्लेख मिलता है । किन्तु पुष्पदन्तकृत महापुराण' में 'उग्रवंशाय' और त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र " एवं पार्श्वनाथचरितं " में 'इक्ष्वाकु' वंश लिखा हुआ है। जबकि पार्श्वचरित सम्बन्धी कुछ प्रमुख ग्रन्थों जैसे समवायांग, कल्पसूत्र, पद्मपुराण, पासणाहचरिउ आदि में गोत्र / वंश विषयक विवेचन प्राप्त नहीं होता । तुलसी प्रज्ञा अक्टूबर-दिसम्बर, 2000 Jain Education International For Private & Personal Use Only 59 www.jainelibrary.org

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