Book Title: Tulsi Prajna 2000 10
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 79
________________ कर, अनगार बन, सुकृत कर्मों का अनुमोदन करके और सभी पापकर्मों का परित्याग करके धीर पुरुष प्रव्रज्या धारण करे तथा पुण्यबोधि को प्राप्त करे। (iv) बारह भावनाएं (अनुप्रेक्षा) जो जीव ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र (रत्नत्रय) से विभूषित होता है वह जीव दोषों से अदूषित होता है तथा इहलोक एवं परलोक में भी सुखी होता है। चतुःशरण प्रतिपन्न जीवन संसार से वैराग्य युक्त होता है तथा अनित्यादि सभी भावनाओं को भाता है।। रचनाकार ने सभी अनुप्रेक्षाओं का क्रमानुसार वर्णन किया है। अनुप्रेक्षाओं के उल्लेख में संसार की यथास्थिति का चित्रण करने के संदर्भ में बहुत सुन्दर वर्णन किया है। (3) वैशिष्ट्य भारतीय काव्यशास्त्र में अलंकारों का विशेष महत्व है। आचार्य दण्ड, आनन्द, मम्मट, विश्वनाथ, जगन्नाथ आदि भारतीय काव्य शास्त्रियों ने काव्य में अलंकारों का प्रयोग अनिवार्य बताया है जिसका अर्थ शोभा को बढ़ाने वाले कारक तत्वों से किया जाता है। 'अलंकरोति इति अलंकाराः' इस उक्ति के अनुसार जिससे सुन्दरता अथवा शोभा की जाए, वही अलंकार है। काव्य में अलंकार कामिनी के शरीर पर स्थित आभूषणों द्वारा बढ़ाए जाने वाले सौन्दर्य के भांति कहा गया है अर्थात् जिससे काव्य की सुन्दरता या शोभा की वृद्धि हो वही अलंकार है। शब्द और अर्थ दोनों की वृद्धि होने से अलंकारों के शब्दालंकार व अर्थालंकार दो भेद किए जाते हैं। 'विवेकमंजरी' प्रकरण काव्य में रचनाकार ने अनायास अलंकारों का प्रयोग किया है। सहज रूप में प्रयुक्त इन अलंकारों से यह लगता है कि कवि ने जानबूझ कर अलंकारों का प्रयोग नहीं किया होगा बल्कि काव्य शैली में ग्रन्थ लिखे जाने से वे सहज ही प्रयुक्त किये गये होंगे। ग्रन्थ का प्रतिपाद्य आचारपरक एवं दार्शनिक होने से भी अलंकारों के सहज प्रयोग की बात सिद्ध हो जाती है। कवि आसड ने इस वृत्ति में उपमा, रूपक, अनुप्रास, परिकर, पर्याय, विभावना, दीपक आदि अलंकारों का प्रयोग किया है। काव्य में प्रयुक्त इन अलंकारों में से कुछ अलंकारों के उदाहरण यहां दृष्टव्य हैं :उपमा उपमा का अर्थ है - निकट रखकर तौलना। जब एक पदार्थ को दूसरे पदार्थ के समान किसी प्रकार की समानता के कारण कहा जाए, वहां उपमा अलंकार होता है। उपमेय और उपमान इन दोनों में समानता दिखाई जाए, वही उपमा अलंकार है। संसार सागर को नाश करने वाले मुनि गणों की तुलना आकाश के भूषण चन्द्रमा से करते हुए कवि ने कहा है विसमभवभमण, जिणसासय गयण मंडण मयंका। इसी प्रकार विवेजमंजरी को श्रवण करने के लिए अमृत रस रूप सरिता की उपमा दी गई है। कवि कहता है कि सवणसुहारससरिअं वुच्चामि विवेकमंजरी अं। तुलसी प्रज्ञा अक्टूबर-दिसम्बर, 2000 - म्बर, 20000 73 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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