Book Title: Tulsi Prajna 2000 10
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 87
________________ जहाँ योग / प्राणायाम / ध्यान / और इन्द्रिय-वासनाओं के नियंत्रण पर प्रयोग किये जायें । युवा मस्तिष्क में इन प्रयासों से एक सृजनात्मक सोच पैदा की जा सकती है। हमारी शिक्षा में संस्कार देने वाली “नैतिक शिक्षा" अनिवार्य की जाये जिसमें सम्प्रदाय या धर्म को नहीं बल्कि सम्प्रदायवाद एवं धर्मान्धता को गलत माने। क्योंकि सम्प्रदाय और सम्प्रदायवाद दो अलग-अलग बातें हैं। एक व्यक्ति धर्म और सम्प्रदाय को छोड़कर सम्प्रदाय के नाम पर रक्तरंजित युद्ध कर सकता है परन्तु दूसरा व्यक्ति सम्प्रदाय को नकार कर धर्म नहीं छोड़ता और वह क्षमा, मैत्री और सह-अस्तित्व के साम्राज्य का अधिकारी होता हैं। शिक्षा का उद्देश्य - " सा विद्या या विमुक्तये" होना चाहिये । मैंने सन् 2000 के पर्युषण पर्व में गुजरात की राजधानी गांधीनगर का एक विशाल दर्शनीय मन्दिर देखा जो “अक्षर-धाम" के नाम से प्रसिद्ध है । उसकी प्रदर्शनी के प्रथम कक्ष में जीवन-शिक्षा का उद्देश्य एक मूर्ति के द्वारा उद्घाटित किया गया / खुलासा किया गया है। एक अनपढ़ पाषाण शिला में एक शिल्पकार रूपाकार हो रहा है। उसके एक हाथ में हथौड़ा है और दूसरे हाथ में छैनी, जिसके द्वारा वह स्वयं का रूप गढ़ रहा है। अपने हाथों से ही स्वयं को रूपाकर बना रहा है। कितनी अद्भुत बात है । वह मूर्ति एक प्रतीक है जो कह रही है कि संस्कारों की छैनी और शिक्षा की हथौड़ी से ही जीवन की अनगढ़ शिला को चिन्मय जीवन का रूप दिया जा सकता है। पंच- अणुव्रतों के परिप्रेक्ष्य में शिक्षा के नये स्वरूप को व्याख्यायित किया जाना चाहिये। ये पंच-अणुव्रत हमारे गृहस्थिक जीवन के संविधान हैं। अहिंसाणुव्रत, सत्याणुव्रत, अचौर्याणुव्रत, ब्रह्मचर्याणुव्रत, और परिग्रहपरिमाणाणुव्रत । जैन धर्म में इन्हें श्रावकों को पालन करने के लिये कहा गया है। बौद्ध धर्म में भी ये पंचशील के नाम से जाने जाते हैं। 1. पाणातिपाता वेरमणी 2. अदिन्नादाना वेरमणी 3. कामेसुविच्छाचारा वेरमणी 4. मुसावादा वेरमणी और 5. सुरामेरेय्यमज्जप्पमादद्वाना वेरमणी । अहिंसा जीवन का लोकोत्तर दर्शन है । हर प्राणी जीना चाहता है और सुख से जीना चाहता है। उसके जीने के मौलिक अधिकार को छीनना हिंसा है। हिंसा पाप भाव भी है और पाप कृत्य भी है। हर प्राणी इन्द्रियों सहित जी रहा है। उसकी इन्द्रियों का घात करना जहाँ द्रव्य - हिंसा है, वहीं जिस राग-द्वेष से प्रेरित होकर वह ऐसा करने के लिये उद्धत होता है वह भी भाव हिंसा है। पाप भाव- असातावेदनीय कर्मों को बांधता है जो आध्यात्मिक अपराध है जिसका दण्ड हमारे कर्म हमें देंगे। उससे छुटकारा नहीं मिल सकता है। पाप हिंसा के कृत्य सामाजिक और वैधानिक दण्डनीय अपराध हैं। अतः सृष्टि में सुख-शान्ति कायम करने लिये अहिंसा की ममतामयी माँ की गोद आवश्यक है। अहिंसा से ही करुणा और दया आती है। तुलसी प्रज्ञा अक्टूबर-दिसम्बर, Jain Education International 2000 For Private & Personal Use Only 81 www.jainelibrary.org

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