Book Title: Tulsi Prajna 2000 10
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 71
________________ 1. जिज्ञासा-'जिज्ञासा' अप्रतीयमान अर्थ में प्रत्यक्षार्थ की प्रवर्तिका होती है, अप्रतीयमान अर्थ की इसलिए जिज्ञासा होती है कि उसे तत्त्वतः जानकर छोड़ दूंगा या ग्रहण कर लूंगा या उपेक्षा कर दूंगा।" 2. संशय-जिज्ञासा के अधिष्ठान को संशय कहा जाता है। उदाहरणतया किसी वस्तु की उपादेयता, अनुपादेयता या अपेक्षणीयता के बारे में भेद संदेह होने पर जिज्ञासा होती है, अतः साध्य विषयक संदेह का नाम ही संशय है। ___ 3. शक्य प्राप्ति-प्रमाणों में अर्थ के अधिगम की जो क्षमता है, उसको ही शक्य प्राप्ति कहते हैं। 4. प्रयोजन - तत्व का निश्चय करना ही प्रयोजन कहलाता है। 5. संशयव्युदास-प्रतिपक्ष को उपस्थापित कर उसका प्रतिबोध करना संशय व्युदास है। युक्तिदीपिकाकार ने भी प्रतिज्ञा आदि के साथ जिज्ञासा, शक्यप्राप्ति, प्रयोजन और संशयव्युदास की गणना करते हुए अवयवों की संख्या दस बताई है -20 वात्स्यायन ने जिज्ञासा आदि पञ्चावयवों को बतलाया तत्पश्चात् अनुमान में उनकी निष्प्रयोजनता को भी स्पष्ट कर दिया और यह कहा-ये वस्तुतः अवयव नहीं अपितु अवयवों के सहचर है। जिज्ञासा आदि अवयव नहीं है क्योंकि 1. ये हान, उपादान, उपेक्षा बुद्धियाँ तत्त्वज्ञान के लिए होती हैं। तत्वज्ञान में ही जिज्ञासा काम आती है। जैसे-वर्तमान वाक्य ‘पर्वतो वह्निमान धूमवत्त्वात्' में यह किसी अर्थ की साधिका नहीं है। 2. संशय से परस्पर दो कोटियों का ज्ञान होता है। संदेह करने मात्र से किसी तथ्य की सिद्धि नहीं होती है। 3. यह 'शक्य प्राप्ति' साधक वाक्य में प्रतिज्ञा की तरह अवयव रूप से प्रयुक्त नहीं होती। 4. प्रयोजन तो वाक्य का फल है न कि वाक्य का एक देश । जयन्त भट्ट का कथन है कि प्रतिज्ञा आदि पञ्चावयव से कम या अधिक अवयव नहीं होंगे। परार्थानुमान जिसे प्रायः सभी दार्शनिकों ने वचनात्मक माना है। उसमें नैयायिकों ने दूसरों के प्रतिपत्ति के लिए पंचावयव का प्रयोग किया है। वे पंचावयव निम्न प्रकार हैं 1. प्रतिज्ञा-पर्वत वह्निमान है। 2. हेतु-धूमवान होने से। 3. उदाहरण-जहाँ-जहाँ धूम है वहाँ-वहाँ आग है जैसे रसोई घर में । 4. उपनय-महानस के समान वह्नि से युक्त धूमवाला यह पर्वत है। 5. नियमन-इस प्रकार पर्वत वह्निमान है। तुलसी प्रज्ञा अक्टूबर-दिसम्बर, 2000 365 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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