Book Title: Tulsi Prajna 2000 10
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 47
________________ नित्य और शाश्वत हैं तथा अवस्था परिवर्तन की दृष्टि से अनित्य और अशाश्वत है। जीव, अजीव और सृष्टि ये तीनों ही परिवर्तनशील हैं। जैन दर्शन गुणात्मक सत्ता या अस्तित्व की दृष्टि से जीव और अजीव को नित्य और शाश्वत मानता है तथा अवस्था भेद या रूपान्तरण की दृष्टि से जीव और अजीव को अनित्य और अशाश्वत मानता है। जैन दर्शन सृष्टि की संरचना में किसी ईश्वर या अलौकिक शक्ति का हस्तक्षेप स्वीकार नहीं करता है। उसके अनुसार सृष्टि की संरचना प्राकृतिक है न कि ईश्वरकृत। तार्किक दृष्टि से भी यह अवधारणा अधिक संगत लगती है। सृष्टि को ईश्वरकृत मानने पर अनवस्था दोष उत्पन्न हो जाता है जिसे समाहित करने के लिये जैन दर्शन की अवधारणा को स्वीकार करना होता है। कुछ दर्शनों ने सृष्टि को ईश्वरकृत माना है और ईश्वर को प्राकृतिक। वास्तविकता यह है कि जो ईश्वर राग-द्वेष से मुक्त है उसे सृष्टि-निर्माता या स्रष्टा के रूप में स्वीकार नहीं करना चाहिये। हमारा यह लोक जीवों से परिपूर्ण है। ससीम लोक में जीवों का निवास है। इन जीवों के दो प्रकार हैं-सिद्ध और संसारी। जो जीव अपने पुरुषार्थ से कर्म-मुक्त, बंधनमुक्त और शरीर मुक्त हो जाते हैं, वे सिद्ध कहलाते हैं। ऐसे जीव अनंत हैं, जिन्हें परमात्मा, परमेश्वर या ईश्वर कह सकते हैं। एक बार मुक्त हो जाने पर जीव कभी संसार में नहीं लौटते हैं और संसार-भ्रमण उनका सदा-सदा के लिये रुक जाता है। संसार के दुःखों को मिटाने का यही एकमात्र उपाय है। मुक्त आत्माएं अपने स्वरूप और स्वभाव में अवस्थित हो जाती हैं। उनके सभी प्रकार के दुःखों का आत्यंतिक क्षय हो जाता है। विविध गतियों और योनियों में भ्रमण करने वाले जीव संसारी कहलाते हैं। संसारी जीव संदेह और दुःख सहित होते हैं। वे अनंतानंत काल से भव-भ्रमण की व्यथा को झेल रहे हैं। मनुष्य और देवगति मिलने से ही जीव को यत्किंचित् विश्राम या विराम तथा सुखानुभव मिल पाता है। नरक और तिर्यञ्च गति दुःखबहुल और कष्टप्रद है। इन गतियों में जीव का बहुत लम्बा समय बीत जाने पर ही पुण्योदय से मनुष्य और देवता की शुभ गति प्राप्त होती है। इन चार गतियों में यह आत्मा अनंत-अंनत काल से परिभ्रमण कर रही है। नानाविध कष्टों को भोगने पर भी आत्मा को अपने चरम उत्कर्ष के क्षण प्राप्त नहीं हो पाये हैं। सभी जीवों में चेतन सत्ता की समानता होने पर भी विविध गतियों और योनियों से संबद्ध विषमता पायी जाती है। भगवान महावीर का उद्घोष है-'नो हीणे नो अइरित्ते' आत्मा या चेतना की दृष्टि से सभी प्राणी समान है। कोई भी प्राणी हीन या अतिरिक्त नहीं है। यह कथन अन्तिम सचाई पर आधारित है। स्थूल जगत में विविधता और विचित्रता के साक्षात् दर्शन होते हैं। जाति, कुल, बल, रूप, ऐश्वर्य, ज्ञान, बुद्धि, सामर्थ्य आदि से विभेद व्यक्ति-व्यक्ति में देखा जा सकता है। चेतना के स्तर इस सृष्टि में तीन प्रकार की चेतना दिखाई देती है-अव्यक्त चेतना, व्यक्त चेतना और विकसित चेतना। चैतन्य की अभिव्यक्ति और विकास की तरतमता या न्यूनाधिकता तुलसी प्रज्ञा अक्टूबर-दिसम्बर, 2000 asses 41 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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