Book Title: Tulsi Prajna 2000 10
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 48
________________ से ही यह वर्गीकरण किया गया है। एक इन्द्रिय वाले जीव अव्यक्त चेतना वाले हैं, ये स्थावर जीव कहलाते हैं। इनमें मानसिक और वाचिक प्रवृत्ति नहीं होती है, इनकी शारीरिक प्रवृत्ति भी बहुत अस्पष्ट होती है। इनमें सुख प्राप्ति और दुःख - निवृत्ति के लिये सलक्ष्य गति नहीं होती है। ये पांच प्रकार के जीव हैं- पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय और वनस्पतिकाय । जिन जीवों का शरीर पृथ्वीमय हैं वे जीव पृथ्वीकाय कहलाते हैं। सभी खनिज पदार्थ- पत्थर, मिट्टी, धातु, रत्न, कच्चा तेल आदि इसी के अन्तर्गत समाविष्ट होते हैं । वर्षा, ओस, हिमपात तथा कूप, सरोवर, समुद्र आदि का जल अप्कायिक जीवों के अन्तर्गत है । धूप-दीप, अगरबत्ती, मोमबत्ती, चूल्हें आदि की अग्नि तेजस्कायिक जीवों का शरीर हैं। खनिज पदार्थ और जल की तरह अग्नि भी सजीव है। वायु भी सजीव है। वायु वायुकायिक जीवों का शरीर है। फल-फूल, पेड़-पौधे, कंद-मूल, अन्न- बीज आदि भी सजीव हैं। ये सभी वनस्पतिकाय जीव कहलाते हैं। वनस्पति की सजीवता या चेतनता आधुनिक विज्ञान द्वारा सम्मत और संपुष्ट है। गेल्वेनोमीटर आदि यंत्रों की सहायता से वनस्पति जगत् के सुख-दुख या प्रिय-अप्रिय संवेदनों का मापन किया जा सकता है। जैनागम में इन सभी जीवों के अस्तित्व को स्वीकार कर आत्मतुला की भावना के विकास पर बल दिया है। ये प्राणी सघन मूर्च्छा या निद्रा में रहते हुये भी चेतनाशून्य नहीं है। चेतना न्यूनतम विकास के कारण हर व्यक्ति इनमें चेतना का सही बोध नहीं कर पाता है। बोध न कर सकने से इनका अस्तित्व समाप्त नहीं हो जाता है। दो, तीन और चार इन्द्रिय वाले जीवों की चेतना व्यक्त और स्पष्ट होती है। कुंथु और चींटी से लेकर सभी कीड़े-मकोड़े और मक्खी-मच्छर आदि इसी वर्ग के अन्तर्गत समाविष्ट होते हैं। ये प्राणी मनशून्य अवश्य होते हैं, किन्तु संकोच - विस्तार, भय - पलायन आदि स्पष्ट रूप से देखे जा सकते हैं। ये गतिक्रिया करते हैं और सुख-दुःख को अभिव्यक्त कर सकते हैं। पांच इन्द्रिय वाले प्राणियों में पशु-पक्षी से लेकर मनुष्य, देव और नारक तक का समावेश हो जाता है। इनमें सभी इन्द्रियों का विकास हो जाता है। मनुष्य को सृष्टि का श्रेष्ठ प्राणी माना जाता है, क्योंकि उनमें मन, बुद्धि, भावना, ज्ञान, विज्ञान, संकल्प और संयम का विकास देखा जा सकता है। देवता और नारक भी समनस्क होते हैं, किन्तु वे हमारी इन्द्रियों के प्रत्यक्ष नहीं है। गर्भ से उत्पन्न होने वाले मनुष्य, पशु-पक्षी आदि समनस्क तथा शेष अमनस्क होते हैं। अमनस्क जीवों की अपेक्षा समनस्क जीव अधिक विकासशील और पतनशील होते हैं। मनुष्य में नैतिक और आध्यात्मिक विकास की अधिकतम संभावना होती है। जीवन की दिशा सही न होने पर मनुष्य इहलोक और परलोक को विकृत करता हुआ चरम पतन की स्थिति भी प्राप्त कर सकता है। मनुष्य जीवन में उत्कर्ष और पतन के दोनों द्वार खुले हैं । आणविक शक्ति का प्रयोग करने वाला मनुष्य संपूर्ण विश्व का विध्वंस कर सकता है और वही मनुष्य आध्यात्मिक शक्ति का प्रयोग करने पर परमात्म-पद को प्राप्त कर सकता है। मनुष्य के भीतर शक्ति है और उसके विकास और विनाश की पूरी संभावना है। तुलसी प्रज्ञा अंक 110 42 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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