Book Title: Tulsi Prajna 2000 10
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 61
________________ (13) यह कहकर कि वह ऐसी ही है इसे यथार्थतः अन्यथा समझाया नहीं जा सकता। ये चार (सत्य, ज्ञान, अनंत, आनंद) जिसके लक्षण हैं और देश, काल, वस्तु आदि निमित्तों के होने पर भी जिसमें परिवर्तन नहीं होता है उसी को 'तत्' अथवा परमात्मा कहते हैं । (16) मैं उत्पन्न नहीं होता हूँ मैं दस इन्द्रियां नहीं हूँ बुद्धि नहीं हूँ मन नहीं हूँ नित्य अहंकार भी नहीं हूँ (14) इन दोनों 'त्वं' व 'तत्' भेदों से पृथक आकाश की तरह सूक्ष्म और सत्ता मात्र जिसका स्वभाव वह ही 'परब्रह्म'। (17) मैं तो सदैव बिना प्राण और बिना मन के शुद्ध स्वरूप हूँ बिना बुद्धि का साक्षी हूँ सदैव चित् स्वरूप हूँ मेरा तो स्वरूप ऐसा इसमें संशय क्या ! (15) जो अनादि पर जिसका भी होता है अंत जो प्रमाण-अप्रमाण में समान रूप से है उपस्थित जो न सत्, न असत्, और न सत् असत् दिखे सर्वाधिक विकार रहित ऐसी शक्ति माया कहलाती। इसका वर्णन ही ऐसा अन्य तरह नहीं हो सकता यह माया अज्ञान स्वरूपा, तुच्छ, मिथ्या पर मूढ़ों को तीनों कालों में इसका अस्तित्व जान पड़ता इसीलिये (18) मैं कर्ता नहीं हूँ भोक्ता भी नहीं हूँ केवल प्रकृति का साक्षी हूँ और समीपत्व के कारण देह आदि को सचेतन का अभ्यास होता और वह वैसी ही क्रियाएं करता। (19) मैं तो स्थिर, नित्य सदैव आनन्द रूप शुद्ध ज्ञानमय निर्मल आत्मा हूँ मैं सब प्राणियों में श्रेष्ठ हूँ साक्षी रूप व्याप्त मैं हूँ तुलसी प्रज्ञा अक्टूबर-दिसम्बर, 2000 55 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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