Book Title: Tulsi Prajna 2000 10
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 50
________________ सकते हैं। यथार्थ दृष्टिकोण के पश्चात् जीवन में त्याग, व्रत और संयम के विकास की आवश्यकता रहती है। कुछ व्यक्ति अपने सामर्थ्य की कमी के कारण संयम और व्रत का आंशिक पालन करते हैं, वे गृहस्थ साधक या श्रावक कहलाते हैं। कुछ व्यक्ति अपने संपूर्ण सामर्थ्य का नियोजन संयम और व्रत की आराधना में करते हैं, वे गृहत्यागी साधक या साधु कहलाते हैं। यह इच्छा-संयम के द्वारा आत्म-केन्द्रित बनने का प्रकर्ष प्रयोग है। इसमें समस्त पापकारी प्रवृत्तियों का यावज्जीवन के लिये त्याग हो जाता है। यह निष्पाप जीवन की मूल्यवान साधना है। इसमें उत्साह और जागरूकता की अभिवृद्धि होने पर साधु को अप्रमत्त अवस्था की प्राप्ति होती है। आत्म स्थित आवेश और विकार-क्रोध, मान, माया, लोभ आदि इस स्थिति में शीघ्रता से क्षीण होने लगते हैं। राग, द्वेष, मोह आदि के सर्वथा क्षीण होने पर साधु वीतराग कहलाते हैं। आत्मा को अपूर्व आत्मिक सुख की प्राप्ति हो जाती है। साधना का उद्देश्य उपलब्ध हो जाता है। वीतराग बनने के बाद साधु शीघ्र ही सर्वज्ञ और सर्वदर्शी बन जाता है। आत्मा के भीतर अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन और अनंत शक्ति प्रकट हो जाती हैं। ज्ञाता, द्रष्टा और सर्वज्ञ साधु अपने जीवन के शेषकाल में ध्यान-मुद्रा को स्वीकार कर निष्प्रकंप बन जाते हैं और अवशिष्ट कर्मों को क्षीण कर सिद्ध, बुद्ध और मुक्त बन जाते हैं। आत्मा समस्त बंधनों से मुक्त बन जाती है। जन्म-मरण की प्रलंब परम्परा समाप्त हो जाती है और सदा के लिये आत्मा लोकान्त में स्थित हो जाती है। चैतन्य विकास के आयाम जैन धर्म में चैतन्य विकास के अनेक आयाम हैं। तप, जप, स्वाध्याय, ध्यान आदि अनेक ऐसे रास्ते हैं जो मंजिल तक पहुंचते हैं। वार्तमानिक परिप्रेक्ष्य में भारत के महान् संत श्री तुलसी और आचार्य श्री महाप्रज्ञ ने मानव मात्र के कल्याण के लिये तीन अवदान-अणुव्रत, प्रेक्षाध्यान और जीवन विज्ञान प्रदान किये हैं। अणुव्रत संकल्प की चेतना को जगाकर जीवन-शैली और आचार संहिता को परिष्कृत करने का महत्वपूर्ण कार्यक्रम है। जीवन में संयम और संकल्प की शक्ति जागने पर मनुष्य का जीवन स्वस्थ, सुखी, शांत और निरामय बनता है। प्रेक्षाध्यान रासायनिक परिवर्तन की प्रक्रिया है। स्वयं के भीतर गहराई में उतरकर स्वयं को देखना इसका प्राण तत्त्व है। चित्त की एकाग्रता, पवित्रता, जागरूकता, स्थिरता और वीतरागता इसकी मौलिक निष्पत्तियां हैं। भावों के परिष्कार और चैतन्य की शुद्धि का यह सहज-सरल प्रयोग है। शिक्षा को सर्वांगीण बनाने तथा विद्यार्थियों के चरित्र को समुन्नत करने के लिये जीवन विज्ञान का प्रकल्प महत्वपूर्ण है। बालक वय से ही जीवन में सुसंस्कारों का निर्माण तथा करूणा, मैत्री, सौजन्य, सहिष्णुता और अभय का विकास ही जीवन विज्ञान की शिक्षा का ध्येय है। - तुलसी प्रज्ञा अंक 110 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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