Book Title: Tulsi Prajna 2000 10
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 30
________________ अनेकान्त विश्वव्यापी है। अनेकान्त तथा स्याद्वाद के समकक्ष विचार जैनेतर भारतीय तथा पाश्चात्य दर्शनों में भी परिलक्षित होते हैं। यथा ऋग्वेद में नासदासीन्न सदासीतदानीम् (10.129.1) ईशावास्य, कठ प्रश्न, श्वेताश्वर आदि उपनिषदों में अनेक विरोधी गुणों की अपेक्षा से ब्रह्म का वर्णन किया है कि वह हिलता है और हिलता भी नहीं है। वह अणु है और बड़े से बड़ा है। वह उत्पन्न होता है, वह उत्पन्न नहीं होता है। वह दूर है, वह पास है। वह सत् है, वह असत् है।' वेदान्त में अनिर्वचनीयवाद, कुमारिल भट्ट का सापेक्षवाद, बौद्ध का मध्यमार्गी आदि सिद्धान्त स्याद्वाद के समकक्ष विचारों का समर्थन करते हैं। ग्रीक में इलियाटिक्स सम्प्रदाय ने जगत को नित्य तथा हैरीक्लीटियन ने जगत को परिवर्तनशील माना। एम्पीडोक्लीज, एटोमिस्ट्रस और एनेक्सागोरस दार्शनिकों ने उपर्युक्त दोनों मतों का समन्वय करते हुए उनमें आपेक्षिक परिवर्तन स्वीकार किया। महान् विचारक प्लेटो ने भी इसी प्रकार के विचार प्रकट किये। जर्मन तत्त्वेव हेगल ने विरुद्धधर्मात्मकता को संसार का मूल कहा है।1 ब्रैडले का विश्वास है कि हर वस्तु दूसरी वस्तु की तुलना में आवश्यक भी है और तुच्छ भी है। हर विचार में सत्य है, चाहे वह कितना ही झूठ हो, हर सत्ता में वास्तविकता है, चाहे वह कितनी ही तुच्छ हो। आधुनिक दार्शनिक ओअचिम का कहना है, कोई भी विचार स्वतः ही दूसरे विचार से अनपेक्षित होकर केवल अपनी ही अपेक्षा से सत्य नहीं कहा जा सकता। प्रसिद्ध वैज्ञानिक अलबर्ट आईन्स्टीन ने अपने सापेक्षता-सिद्धान्त द्वारा स्याद्वाद दृष्टि का ही समर्थन किया है। मानसशास्त्रवेत्ता प्रो. विलियम जेम्स ने लिखा है, हमारी अनेक दुनिया है। साधारण मनुष्य इन सब दुनियाओं का एक दूसरे से असम्बद्ध तथा अनपेक्षित रूप से ज्ञान करता है। पूर्ण तत्ववेत्ता वही है जो सम्पूर्ण दुनिया को एक दूसरे से सम्बद्ध और अनपेक्षित रूप में जानता है। इसी प्रकार के विचार पेरी16, नैयायिक जोसेफ, एडमण्ड होम्स' प्रभृति विद्वानों ने भी प्रकट किये हैं।18 उक्त विचारधाराएं उतनी प्राचीन नहीं हैं जितना कि जैनधर्म । इस दृष्टि से अनेकान्त रूपी वृक्ष की ये शाखाएं हैं जो पृथक्-पृथक् रूपों में फैली हैं। अत्यन्त दुःख का विषय है कि औदार्य के चरमबिन्दु पर पहुंच कर सत्य का पोषण करने वाले अनेकान्त दर्शन का जैनेतर विद्वानों ने खण्डन का प्रयास किया। बादरायण ने नैकस्मिन् असम्भवात् (6.2.33) सूत्र की रचना की। इस पर शंकर, रामानुज से लेकर डॉ. राधाकृष्णन एवं पं. बलदेव उपाध्याय आदि ने दिग्भ्रमित भाष्य लिखे। वसुबन्धु, दिङ्नाग, धर्मकीर्ति प्रज्ञाकरगुप्त, अर्चट, शान्तिरक्षित आदि प्रभावशाली बौद्धों ने अनेकान्त पर निर्मम प्रहार किये। तब आत्मरक्षार्थ जैन विचारकों ने अनेकान्त को तार्किक दृष्टि से व्यवस्थित किया। आज से सहस्रों वर्षों पूर्व आगम ग्रन्थों में विकीर्ण अनेकान्त और स्याद्वाद के बीजों की सिद्धसेन तथा समन्तभद्र प्रभृति जैन दार्शनिकों ने विपुल वाङ्गमय का प्रणयन किया। जैन तत्वमनीषी कलिकालसर्वज्ञ हेमचन्द्राचार्य प्रणीत अन्ययोगव्यवच्छेदिका द्वात्रिंशिकाख्य नामक स्तोत्र में गूढ़ दार्शनिक तत्वों की सरल अभिव्यक्ति का उत्तम निदर्शन है। इसके 32 पद्यों में अन्य योगों का व्यवच्छेद अर्थात् अन्य दर्शनों के मतों का खण्डन किया गया है। न्याय-वैशेषिक, मीमांसा-वेदान्त, सांख्य-बौद्ध और चार्वाक आदि दर्शनों की समीक्षा कर 24 ... .... 3 तुलसी प्रज्ञा अंक 110 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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