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अनेकान्तवाद का दृढ़तापूर्वक समर्थन किया है। इसके 21 से 29 पद्य तक 9 पद्यों में अनेकान्त की व्याख्या की है। हेमचन्द्र के इस स्तोत्र के गूढ़ दार्शनिक तत्वों को उद्घाटित करने के उद्देश्य से मल्लिषेनाचार्य ने इस पर स्याद्वादमंजरी नामक टीका ग्रन्थ की रचना की।
अनेक वृक्षों से पुष्प चुनने के समान अनेक दर्शन सम्बन्धी शास्त्रों से प्रमेयों को चुनचुन कर निःसन्देह मल्लिषेण सूरि ने स्याद्वादमंजरी नामक माला गूंथ कर जैन न्याय को समलंकृत किया । स्याद्वादमंजरी को जैन दर्शन और न्याय की विकट एवं गहन अटवी से निकालकर न केवल विश्राम योग्य, सर्वांगसुन्दर आधुनिक उपवन की उपमा से विभूषित किया अपितु साहित्य का एक अंश भी कहा है। 21 इसमें दर्शन और साहित्य का मणिकांचन संयोग है । स्याद्वादमंजरी पर उपाध्याय यशोविजयजी ने स्याद्वादमंजूषा नामक वृत्ति की रचना भी की है। 22
स्याद्वादमंजरी में मल्लिषेणाचार्य ने एकान्तवादी दार्शनिकों के मतों का खण्डन कर एकान्त का मण्डन किया है।
वेदान्ती वस्तुतत्व को सर्वथा नित्य मानते हैं तथा बौद्ध प्रत्येक वस्तु को सर्वथा क्षणिक बताते हैं किन्तु जैन मतानुसार वस्तु में उत्पत्ति और नाश दोनों की स्थिति है । उत्पत्ति और नाश दोनों स्थितियों के होने पर भी हमें वस्तु की स्थिरता का आभास होता है। अतः द्रव्य की अपेक्षा से वस्तु नित्य है और पर्याय की अपेक्षा से अनित्य है । इस प्रकार प्रत्येक वस्तु कथंचित् नित्य और कथंचित् अनित्य है । उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य परस्पर कथंचित् भिन्न होकर भी सापेक्ष है। जिस प्रकार नाश और स्थिति के बिना केवल उत्पाद सम्भव नहीं है, उसी प्रकार उत्पाद और नाश के बिना स्थिति भी सम्भव नहीं है। अतः उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य ही वस्तु का लक्षण है। इस प्रकार वस्तु अनन्त धर्मात्मक है। ऐसा न मानने पर वस्तु में वस्तुत्व सिद्ध नहीं हो सकता । जो नहीं होता वह सत् भी नहीं होता । अतः जीव, अजीव, धर्म, अधर्म, आकाश और काल षड्द्रव्यों में अनन्त स्वीकार करना चाहिये । इसकी अवहेलना करने वाला उन्मत्त, वातग्रस्त तथा पिशाचग्रस्त की भांति है। 23
प्रमाणवाक्य और नयवाक्य से वस्तु में अनन्त धर्म की सिद्धि होती है। प्रमाणवाक्य को सकलादेश तथा नयवाक्य को विकलादेश कहते हैं। पदार्थ के धर्मों का काल, आत्मरूप, अर्थसम्बन्ध, उपकार, गुणिदेश, संसर्ग और शब्द की अपेक्षा अभेद कथन करना सकलादेश है तथा काल, आत्मरूप आदि की भेद विवक्षा से पदार्थ के धर्मो का प्रतिपादन करना विकलादेश है । स्यादस्ति, स्यान्नास्ति, स्यादस्तिनास्ति, स्यादवक्तव्य, स्यादस्तिवक्तव्य, स्यादस्तिनास्ति वक्तव्य और स्यादस्ति नास्तिअवक्तव्य के भेद से सकलादेश और विकलादेश प्रमाण सप्तभंगी और नयसप्तभंगी के भेद से सात-सात भंगी में विभक्त है। यथाइयं च सप्तभंगी प्रतिभंगं सकलादेश स्वभवा विकलादेश स्वभवा | 24
जीव को दृष्टिगत रखते हुए सप्तभंग इस प्रकार है—
1. स्यादस्ति जीव : जीव किसी अपेक्षा से अस्तिरूप ही है । इस भंग में द्रव्यार्थिक नय की प्रधानता तथा पर्यायार्थिक नय की गौणता है । स्यादस्त्यैव जीवः का अर्थ है कि जीव अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से विद्यमान है और परद्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा नहीं है । यदि जीव अपने द्रव्यादि की अपेक्षा से अस्ति रूप और दूसरे द्रव्यादि की अपेक्षा से नास्तिरूप न हो तो जीव का स्वरूप नहीं बन सकता ।
तुलसी प्रज्ञा अक्टूबर-दिसम्बर,
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