Book Title: Tulsi Prajna 2000 10
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 21
________________ नीचे कुछ उदाहरण-पद्य संस्कृत छाया और डॉ. वैद्य के भाषान्तर (हिन्दी में अनूदित) के साथ उद्धृत किए जा रहे हैं और संशोधन के अवकाश का निर्देश करते हुए संशोधित हिन्दी रूपान्तर विचारार्थ प्रस्ततु किए जा रहे हैं :(क) सूत्र 341 उदाहरण -पद्य-क्रमांङ्क 1 गिरिहें सिलायलु तरुहे फलु घेप्पड़ नीसावन्नु । घरु मेल्लेप्पिणु माणुसहं तो वि न रुच्चइ रन्नु । छाया गिरेः शिलातलं तरोः फलं गृह्यते निःसामान्यम् । गृहं मुक्त्वा मनुष्याणं तथापि न रोचते अरण्यम् ।। भाषान्तर “(लेटने के लिए) पर्वत से शिलातल और (खाने के लिए) वृक्ष से फल कोई भी बिना किसी भेदभाव के पा सकता है; फिर भी घर छोड़ने पर लोग अरण्य को पसन्द नहीं करते।" यहाँ 'नीसावन्नु' की छाया 'निःसामान्यम्' और फिर इसके भाषांतर 'बिना किसी भेदभाव के' पर फिर से विचार करने की आवश्यकता है। यद्यपि छाया ध्वनि-परिवर्तन के नियम के अनुकूल है, फिर भी इसका अर्थ 'बिना किसी भेदभाव के' करना दूरान्वय है, अलबत्ते इसका अर्थ 'बिना किसी साझेदार के हो सकता है। यह अर्थ भी प्रसंगानुकूल होगा। फिर नीसावन्नु' की छाया 'निःसपत्नम्' भी कर सकते हैं। यहाँ यह बाधा अवश्य है कि ध्वनि-परिवर्तन के नियमानुसार 'निःसपत्नम्' का प्राकृत रूप ‘नीसवत्तं' है (पिसेल 276)। पर नियत से ईषत् व्यतिक्रम अपभ्रंश में अग्राह्य नहीं होना चाहिए। और यदि नियम का वैसा आग्रह हो तो इसे 'निःसापत्न्यम्' से निष्पन्न किया जा सकता है, अर्थ वही रहेगा, 'बिना किसी हिस्सेदार के' । यद्यपि यह अर्थ उपर्युक्त तीनों तत्सम शब्दों से आ सकता है तथापि यहाँ अधिक प्रचलित होने के कारण, 'निःसपत्नम्' ही ग्राह्य प्रतीत होता है। तदनुसार विचाराधीन पद्य का भाषान्तर इस तरह किया जा सकता है “(सोने-बैठने के लिए) पर्वत से शिलातल और (खाने के लिए) वृक्ष से फल, (वहाँ) बिना किसी साझेदार के मिल जाते हैं; (फिर भी) घर छोड़कर अरण्य की ओर लोगों की रुचि नहीं होती है।"। (ख) सूत्र संख्या 349 उदाहरण-पद्य-क्रमांक 1 निअ-मुह-करहिँ वि मुद्ध कर अंधारइ पडिपेक्खड़। ससि-मण्डल-चंदिमए पुणु काइँ न दूरे देक्खइ॥ छाया निजमुखकरैः अपि मुग्धा करं अन्धकारे प्रतिप्रेक्षते । शशिमण्डलचन्द्रिकया पुनः किं न दूरे पश्यति ॥ भाषान्तर “सुन्दरी अन्धेरे में अपने मुखचन्द्र के प्रकाश से अपना हाथ देख लेती है; फिर वह पूर्णचन्द्र के प्रकाश में दूरस्थ वस्तु को क्यों न देखे।" womoooooor तुलसी प्रज्ञा अक्टूबर-दिसम्बर, 2000 3883-888888 15 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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