Book Title: Tulsi Prajna 2000 10
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 27
________________ "श्याम-सलोनी गोरी कोई अनोखी विषग्रन्थि है, क्योंकि इससे उलटे वह मनचला छोकड़ा मरता है जिसके कण्ठ से यह लगती नहीं है (जबकि सामान्य विषग्रन्थि उसे मारती है जिसके कण्ठ से वह लगती है अर्थात् जो इसे खा लेता है)।" (ड) सूत्र 423 उदाहरण पद्य-क्रमांक 1 मइँ जाणिउं बुड्डीसु हउँ पेम्म-द्रहि हुहरु त्ति । नवरि अचिन्तिय संपडिय विप्पिय-नाव झड त्ति ।। छाया मया ज्ञातं मंक्ष्यामि अहं प्रेमहदे हहरुशब्दं कृत्वा । केवलं अचिन्तिता संपतिता विप्रियनौः झटिति ॥ भाषान्तर "मैंने समझा कि प्रेम-रूपी हृद में मैं 'हुहुरु' शब्द के साथ डूब जाऊँगा, परन्तु अकस्मात् मुझे नाव मिल गई-वियोग का दुःखद समाचार मिला।" यहाँ 'विप्रिय' का अर्थ, 'रति-कलह', ईर्ष्यादि के कारण प्रेमियों के बीच का पारस्परिक तनाव या मन-मुटाव करना अच्छा होगा। तदनुसार दूसरी पंक्ति का भाषान्तर होगा-'सहसा हमें रति-कलह के कारण मन-मुटाव की नाव मिल गई, जिसके बारे में सोचा भी नहीं था।' (ढ) सूत्र 423 उदाहरण पद्य-क्रमाङ्क 2 खज्जइ नउ कसरक्केहि, पिज्जइ नउ घुण्टेहिं । एम्वइ होइ सुहच्छडी, पिए दिढे नयणेहिं॥ छाया खाद्यते न कसरत्कशब्दं कृत्वा, पीयते न घुट्शब्दं कृत्वा । __ एवमपि भवति सुखासिका प्रिये दृष्टे नयनाभ्याम् ॥ भाषान्तर "जब प्रेमी आंखों से देखा जाता है तो कोई (प्रेमिका) न ‘कसरक्क' ध्वनि के साथ खायी जाती है और न वह 'घुण्ट' ध्वनि के साथ पीयी जाती है, फिर भी इसमें आनन्द और सुख मिलता है।" भाषान्तर में मानों लीक छूट गई। पद का भाव यह है कि जब प्रिय नयनों से देखा जाता है तब खाने-पीने की शारीरिक क्रिया के बिना ही इसमें खाने-पीने का सुख-संतोष मिलता है। मिलाइए, अंग्रेजी का प्रयोग to feast one's eyes on somebody और मृच्छकटिकम् (4.4.6)- ‘अदिसिणिद्धाए णिच्चलदिट्ठीए आपिवन्ती विअ एवं णिज्झाअदि', तथा '(तं) पपौ निमेषालसपक्ष्मपंक्तिः उपोषिताभ्यामिव लोचनाभ्याम्' रघुवंश 2.19; 'सुहच्छडी' को 'सुख-क्षरी', 'सुख की झरी' किया जा सकता है। तद्नुसार पद्य का अनुवाद होगा “खाया पर बिना कसरक्क' ध्वनि के; पीया पर बिना 'घुण्ट' 10 ध्वनि के; प्रिय को नयनों से निहारने पर इसी तरह सुख की झरी होती है।" तुलसी प्रज्ञा अक्टूबर-दिसम्बर, 2000 21 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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