Book Title: Tulsi Prajna 2000 10
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 11
________________ ईमानदारी के साथ कि वास्तव में क्या हम सही मायनों में जैन हैं ? क्योंकि आज मैं कौन हूं? इस सवाल से भी ज्यादा महत्त्वपूर्ण यह सोचना है कि मैं कहां हूं? । मैं जहां भी हूं, जिस रूप में भी हूं, क्या मैं अपने दायित्व को, सिद्धान्तों और आदर्शों को, नीतियों को निष्ठापूर्वक जी रहा हूं? क्या मैं जैन होने का दावा करके जैनत्व की संस्कृति को अपनी पहचान बना सका हूं? क्या मैं अर्थार्जन के संसाधनों के प्रति प्रामाणिक हूं? क्या मैं प्राणी मात्र के प्रति सह-अस्तित्व और आत्मतुला का भाव रखता हूं? क्या मैं परार्थवादी और सुखवादी परिवेश में अपनी आकांक्षाओं पर नियन्त्रण रखता हूँ? क्या मैं पर्यावरण के प्रति जागरूक हूं? क्या औरों के अधिकारों और हितों का ख्याल रखता हूं? क्या मैं अन्याय और शोषण के प्रति जिहाद छेड़ने का साहस रखता हूं? अनेक ऐसे सवाल हैं जिनके उत्तर में सच्चे जैन होने का प्रमाण पत्र हमें मिल सकता है। जैनदर्शन ने अहिंसा, अपरिग्रह और अनेकान्त जैसे सारभूत तत्त्व व्यक्ति को समझाये । व्यक्ति हिंसा से बचे यानी संकल्पपूर्वक निरपराध प्राणी की हिंसा न करे। क्योंकि हिंसा का जन्म परिग्रह से यानी मूर्छा से होता है। व्यक्ति अकेला ही सत्ता, अधिकार, वैभव, प्रतिष्ठा का सुख भोगना चाहता है और इसके लिए वह हिंसा को साधन बनाता है। हिंसा का अर्थ किसी प्राणी को मार देना ही नहीं होता बल्कि उसे सताना, अधिकारों से वंचित करना, उसके प्रति शोषण और अन्याय करना सारे निषेधात्मक भावों का मूल हिंसा से जुड़ा है। इसलिए हिंसा और परिग्रह को अलग-अलग नहीं किया जा सकता । व्यक्ति में मूर्छा होती है तभी संग्रह की वृत्ति जागती है। अपने और पराए की संवेदना होती है तभी व्यक्ति हिंसक, क्रूर, नृशंस, संवेदनहीन बनता है। भगवान महावीर ने सामुदायिक चेतना के विकास में अहिंसा की साधना के सूत्र दिए-व्यक्ति सह-अस्तित्व का विकास करे । सबमें स्वयं को अनुभूत करे। सबको अभय दे। संविभाग की चेतना को जागृत करे। इसी तरह अपरिग्रह का सिद्धान्त यदि जीवन की शैली बन जाए तो आज अनेक समस्याएं स्वतः समाहित हो सकती हैं। क्योंकि आवश्यकता और उपयोगिता का विवेक, आर्थिक सन्तुलन, इच्छा-परिमाण-व्रत का स्वीकरण जीवन-शैली का प्राण तत्त्व है। अपरिग्रह सिर्फ धन-संग्रह का संयमन ही नहीं सिखाता, मन की आकांक्षाओं का सीमांकन भी करता है। इस सत्य को भी समझाता है—'तृष्णा न जीर्णा, वयमेव जीर्णा-तृष्णा कभी तृप्त नहीं होती। तुलसी प्रज्ञा अक्टूबर-दिसम्बर, 2000 5 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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