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तुलसी प्रज्ञा अंक 108 O आज की ज्वलन्त समस्या है निरंकुश भोगवाद। उपभोक्तावादी संस्कृति ने विलासिता
और आकांक्षाओं को नए पंख दे दिए हैं। अधिक अर्जन, अधिक संग्रह और अधिक भोग की मानसिकता ने नैतिक मूल्यों को ताक पर रख दिया है, इससे सामाजिक व्यवस्था में बिखराव आया है। वैयक्तिक अर्थ व्यवस्था भी लड़खड़ा गई है। तनावों, स्पर्धाओं और कुंठाओं ने भी जन्म लिया है। धन के अतिभाव और अभाव ने अमीर को अधिक अमीर बना दिया, गरीब और अधिक गरीब बनता गया। फलतः अपराधों ने जन्म ले लिया।
जैन समाज में भी ऐसे लोग सामने आने लगे हैं जिनकी सिर्फ यही सोच है कि मेरे पास वो सब कुछ होना चाहिए जो सबके पास हो मगर सबके पास वो नहीं होना चाहिए जो मेरे पास हो।' इस स्वार्थी, संकीर्ण सोच ने अपराधों को आमंत्रण दिया है। असंयम से जुड़ी इन आपराधिक समस्याओं को रोकने के लिए यदि अर्जन के साथ विसर्जन जुड़ जाए, अनावश्यक भोग पर अंकुश लग जाए, आवश्यकता, अनिवार्यता और आकांक्षा में फर्क समझ में आ जाए तो सटीक समाधान हो सकता है। 0 जैन समाज में होने वाले आयोजनों, उत्सवों, जन्म से लेकर मृत्यु तक के प्रसंगों पर जो
धन की फिजूलखर्ची होती है, अपनी प्रतिष्ठा के झूठे प्रदर्शन में, शान-शौकत में पाश्चात्य संस्कृति का जो अंधानुकरण होता है, इसे अंकुश देना राष्ट्रीय हितों में बहुत जरूरी है। पुराने जमाने में तीज त्योंहार, होली दीवाली, शादी-विवाह जैसे प्रसंगों पर स्नेह मिलन, सहभागिता और सांस्कृतिक धरोहर की सुरक्षा को मूल्य दिया जाता था, आज इन अवसरों पर पटाखे, आतिशबाजी, नाच-गानें, फिल्मी धुनें, शराब का दौर, असमय में अमर्यादित खान-पान परोसा जाता है। फाइव स्टार होटलों में चौंधिया देने वाली पार्टियां और शादी-विवाह के भोज जैन-संस्कृति के आदर्शों का मजाक है। अहिंसा, अपरिग्रह और सादगी तथा संयम में आस्था रखने वाला जैन समाज आज प्रवाहपाती क्यों बन गया? विलासिता और अपव्ययिता के चक्रव्यूह में कैसे फंस गया?
गरीबी, बेरोजगारी, भूखमरी, बीमारी और तनावों की त्रासदी के बीच अमीरों की शान-शौकत, प्रतिष्ठा की भूख और ऊंचे कद और कोठी का अहं हमारी संस्कृति के गाल पर तमाचा है। जरूरत है जैन समाज के अगुआ इस प्रवाह का रुख बदलें। नया चिन्तन जोड़ें
और रचनात्मक शैक्षणिक पाठशालाएं, चिकित्सालय, रोजगार के नए आयाम, प्रशिक्षण केन्द्रों की योजना करें। 6 AINTI TIVITINI TIATIVITWITTIVITIWINNINV तुलसी प्रज्ञा अंक 108
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