Book Title: Tulsi Prajna 2000 01
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 41
________________ धर्म और कर्त्तव्य : आचार्य भिक्षु की दृष्टि में चलने से त्रस और स्थावर जीवों की हिंसा होती है, यह दूसरा पक्ष है। जो जीव हिंसा से सर्वथा विरत होना चाहे वो रेल के वाहन का प्रयोग नहीं कर सकता, यह एक पक्ष हुआ। जो अणुव्रती है वह रेल के वाहन का प्रयोग करने की छूट रखता है। यह उसके व्रत के अन्तर्गत नहीं आता। यह उसका अव्रत है। किन्तु रेल के प्रयोग की छूट रखने पर भी वह बिना टिकट यात्रा करने की छूट नहीं ले सकता। क्योंकि जो भी रेल का प्रयोग करे उसके लिए रेलविभाग के नियमों का पालन अनिवार्य है। अभिप्राय यह है कि यह उचित नहीं है कि हम किसी विभाग अथवा संस्था के द्वारा दी गई सुविधाओं का प्रयोग तो करें किन्तु उस संस्था या विभाग के नियमों का पालन न करें। समाज धर्म की यह मूल भित्ति है। एक व्यक्ति किसी सरकारी संस्थान में काम करता है। उसका बच्चा बीमार हो जाये तो उसके लिए औषधि चाहिये। परिवार का मुखिया होने के नाते बच्चे के लिए औषधि की व्यवस्था करना उसका कर्त्तव्य है। औषधि के लिए पैसा चाहिये। विभाग के नियम के अन्तर्गत वेतन अथवा कर्जे के पैसे से औषधि की व्यवस्था करना उचित है। किन्तु रिश्वत लेना विभाग के नियमों के विरुद्ध है। . . आचार्य भिक्षु के सिद्धान्त को ठीक से समझने के लिए हमें अध्यात्म और सामाजिकता के बीच भेद करना होगा। अध्यात्म की दृष्टि से तो परिग्रह मात्र बन्धन का कारण है। किन्तु लौकिक दृष्टि से अनुचित साधनों से धनोपार्जन त्याज्य है । ईमानदारी से मेहनत करके पैसा कमाना लौकिक दृष्टि से हेय नहीं है । लौकिक दृष्टि से हेय है अनुचित साधनों से धनोपार्जन करना। आचार्य भिक्षु के साधन-साध्य सम्बन्धी सिद्धान्त को यदि लौकिक क्षेत्र में लाग करके देखा जाये तो वह सामाजिक जीवन को भी स्वच्छ बना सकता है। सामाजिक प्राणी की अनेक आवश्यकताएं होती हैं, उन आवश्यकताओं की पूर्ति करना उसका साध्य है। किन्तु इस साध्य की पूर्ति उसे उचित साधनों द्वारा ही करनी है। यह सम्भव है कि लौकिक दृष्टि से जो साधन उचित है, अध्यात्म की दृष्टि से वे साधन भी अनुचित ही सिद्ध होते हैं। किन्तु लौकिकता के क्षेत्र में लौकिक नियम ही लागू होंगे, आध्यात्मिक नियम नहीं। लौकिकता और आध्यात्मिकता के बीच भेद को हम अनेक बिन्दुओं के माध्यम से समझ सकते हैं। आचार्य भिक्षु का बल यह था कि वे इन दोनों के बीच मिश्रण के पक्षधर नहीं थे। इन दो के बीच भेद के कुछ बिन्दु इस प्रकार हैं तुलसी प्रज्ञा जनवरी-मार्च, 2000 AMITITION ITICISIS 35 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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