Book Title: Tulsi Prajna 2000 01
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 54
________________ तुलसी प्रज्ञा अंक 108 माधवचन्द्र विद्यदेव : इन्होंने त्रिलोकसार और लब्धिसार (क्षपणासारगर्भित) पर टीकाएं बनाई हैं। श्रीमद् अभयचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती : इन्होंने गोम्मटसार पर मन्दबोधप्रबोधिनी नामावली अपूर्ण टीका लिखी है जो संस्कृत में है। इसी कारण इस टीका की दो प्रतियां मिलती हैं। कुछ ऐसी जो अपूर्ण रह गई हैं, कुछ ऐसी जिनके साथ नेमिचन्द्र कृत जुड़ी हुई हैं। दूसरे प्रकार की प्रति को ज्ञानभूषण के शिष्य नेमिचन्द्र ने केशववर्णी टीका पर से पूर्ण किया है। केशववर्णी : इनके गुरु अभयचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती थे। इनकी टीका 'जीवत्व प्रदीपिका' नाम से जानी जाती है जो कन्नड़ भाषा में है तथा कर्णाटक वृत्ति से बनाई है। इसके गाथा नं. 374 से लेकर सम्यक्त्व मार्गणा के कुछ अंशपर्यन्त के 109 पत्र नागरी लिपि में भवन में सुरक्षित है। यह टीका वि.स. 1416 में पूर्ण हुई, ऐसा माना जाता है। ज्ञान भूषण भट्टारक : श्रीमद् राजचन्द्र आश्रम, आगास द्वारा प्रकाशित लब्धिसार की तृतीयावृत्ति (1992 ई.) के पृष्ठ क्रं. 41 से ज्ञात होता है कि गोम्मटसार (कर्मकाण्ड) पर इनकी टीका आचार्य नेमिचन्द्र : इनके गुरु ज्ञानभूषण थे। इन्होंने केशववर्णी की कन्नड़ टीका से 'जीवतत्वप्रदीपिका' नाम वाली ही संस्कृत टीका बनाई है। इस टीका के रचना का काल वि.स. 1416 के बाद तथा वि.स. 1608 के पूर्व का है। पं. टोडरमल्लजी : उन्होंने 'सम्यक्ज्ञानचंद्रिका' नाम से गोम्मटसार, लब्धिसार और त्रिलोकसार पर टीकाएँ लिखी हैं, जो क्रमशः लगभग 38000, 13000 और 14000 वाक्यों में समाहित हैं। इनकी गोम्मटसार की टीका का काल वि. सं. 1818 निश्चित होता है। इनकी टीकाएँ विशुद्ध और सुबोध हैं। इनकी टीकाओं से मूल ग्रंथों में प्रवेश करने और विषय को हृदयंगम करने में विशेष सहायता मिलती हैं। इनकी टीकाओं की सबसे बड़ी विशेषता उनमें अर्थ संदृष्टि अधिकार का होना है। पं. आशाधरजी : इन्होंने गोम्मटसार पर कोई टीका लिखी है, ऐसी सूचना पं. खूबचन्द्रजी ने प्राप्त की थी। यह टीका संस्कृत में थी। परन्तु पं. खूबचन्द्रजी लिखते हैं कि न तो यह टीका उपलब्ध है, न ही किसी प्राचीन उल्लेख द्वारा समर्थित है। प्रसंगवश यह लिखना उचित होगा कि डेकिन कॉलेज की प्रति में 200 पृष्ठ किसी अन्य संस्कृत टीका के हैं, जो अभयचन्द्र और नेमिचन्द्र दोनों की टीकाओं से विलक्षण हैं। यह जानकारी वृहद्गोम्मटसार के पं. गजाधरलालजी की प्रस्तावना से प्राप्त होती है। पं. मनोहरलालजी शास्त्री : पाढमनिवासी शास्त्रीजी ने गोम्मटसार-कर्मकाण्ड (वि.सं. 1969) पर संस्कृत छाया सहित हिन्दी में, लब्धिसार-क्षपणासारगर्भित (1919 ई.) और त्रिलोकसार 48 AIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIT तुलसी प्रज्ञा अंक 108 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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