Book Title: Tulsi Prajna 2000 01
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 72
________________ तुलसी प्रज्ञा अंक 108 का वातावरण निर्मित किया है। मेरे यही संक्लेश मेरे लिये और-और कण्टकों की फसल बोते रहे हैं। संसार में यही मेरी व्यथा की कथा है। यह बहुत बड़ा सु-योग है कि इस बार मुझे मनुष्य जन्म मिला। उत्तम कुल और जिनवाणी सुनने -समझने की पात्रता मिली और उत्तम संस्कार मिले हैं। उदय और उपशमक्षयोपशम के रहस्यों को जानने-समझने की बुद्धि मुझे मिली है। अपना कल्याण करने के लिये कर्म की ओर से जितनी अनुकूलताएं आवश्यक हैं वे सब मुझे इस समय प्राप्त हैं। इन सबका आकलन करने के लायक, और करणीय तथा अकरणीय का निर्णय करने के लायक मोह कर्म की मंदता या कषायों की मंदता भी मेरी पहुंच के भीतर है। अब स्वकल्याण के मार्ग पर कदम बढ़ाने के लिये केवल एक दृढ़ संकल्प की आवश्यकता है। केवल चल पड़ने की देर है। यह संकल्पशीलता और यह गतिशीलता किसी कर्म के उदय से नहीं मिलती। आवरणी कर्मों का क्षयोपशम भी इसका नियामक कारण नहीं है। यह तो अपने वर्तमान के पुरुषार्थ को जागृत करने और सम्हालने से मिलेगी। मोहनीय कर्म का उपशम और क्षयोपशम इसी जागरूकता में से उत्पन्न होगा। वह 'कार्य' है, 'कारण' नहीं है। मोक्ष मार्ग का कारण तो मेरा अपना सम्यक् पुरुषार्थ ही है। शांति सदन, कम्पनी बाग सतना-485 001 (मध्य प्रदेश) 66 WINITIV तुलसी प्रज्ञा अंक 108 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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