Book Title: Tulsi Prajna 2000 01
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 68
________________ तुलसी प्रज्ञा अंक 108 मोहनीय कर्म का उपशम या क्षयोपशम जीव को कभी प्राप्त नहीं हुआ। वह एक बार मिल जावे तो संसार की अनन्तता टूट जाये और अंत निकट आने लगे। इस समीकरण से यह सिद्ध हुआ कि तीन कर्मों का क्षयोपशम जब तक मोहनीय कर्म के उदय के साथ रहेगा तब तक वह अनन्त संसार के बंधन में ही सहायक होगा। जब मोहनीय का भी क्षयोपशम प्राप्त हो जायेगा यानी जीव एक बार सम्यग्दर्शन प्राप्त कर लेगा तब उसी क्षण से इन तीन कर्मों के निमित्त से उपजे क्षयोपशम भाव में भी मोक्ष का कारण बनने की योग्यता जागृत हो जायेगी। दिशा नहीं है क्षयोपशम के पास __ वास्तविकता यह है कि क्षयोपशम जीव की सामान्य शक्तियों के सीमित विकास का नाम है। उन शक्तियों का उपयोग करके जीव अपने लिये क्या अर्जित करेगा, यहां उसे क्या अर्जित करना चाहिए, यह विवेक क्षयोपशम के पास नहीं है। जिस प्रकार वर्षा का पानी जब बाढ़ के रूप में स्वच्छन्द होकर बहता है तब वह विनाश ही करता है किन्तु वही पानी जब नहरों के कूल-किनारों में संयोजित होकर प्रवाहित होता है तब सृजन में सहायक होता है। उसी प्रकार क्षयोपशम से प्राप्त जीव के ज्ञान और पुरुषार्थ आदि गुण अपने आप में दिशाहीन होते हैं। जब तक उसकी ये शक्तियां राग-द्वेष-मोह से प्रेरित यद्वा-तद्वा प्रवाहित होती रहती है तब तक वे जीव के लिये संसार-बंध और दुख रूप विनाश का ही निमित्त बनती रहती हैं। वह शक्तियां जब धर्म के स्व पर हितकारी कार्यों में नियोजित और अनुशासित हो जाती हैं तब उनके निमित्त से जीव अपने लिये सद्गति और सुख की प्राप्ति करने लगता है। आत्म अनुशासन के उसी प्रकाश में सन्मार्ग पर उसकी यात्रा प्रारम्भ हो जाती है। किनारे पर रहने वाले लोग भी जब तक अपने संकल्प के द्वारा नदी-जल का हितकर उपयोग करने का पुरुषार्थ नहीं करते तब तक वह जल राशि व्यर्थ ही बहती चली जाती है। उसी प्रकार जीव जब तक दृढ़ संकल्प के साथ अपनी शक्तियों को स्व पर कल्याण के मार्ग पर नियोजित नहीं करता, तब तक क्षयोपशम से प्राप्त उसकी शक्तियों का निरन्तर प्रवाह निरर्थक ही चला जाता है। इसी में उसके अनेक जन्म व्यर्थ चले जाते हैं। कालान्तर में वे व्यक्त शक्तियां पुनः आवरणी कर्मों के आच्छादन में लुप्त होती चली जाती हैं। अनादि काल से मेरे साथ यही हो रहा है। संसार में कुछ कर गुजरने की सामर्थ्य आवरणी कर्मों के क्षयोपशम से मिलती है। यह बहुत दुर्लभ नहीं है । अनादि काल से मुझे मिली हुई है। परन्तु अपने हित के लिए उसका सदुपयोग करने की सूझ-बूझ और सामर्थ्य सबको सदा नहीं मिलती। वह एक दूसरे ही प्रकार की शक्ति है जिसके उदित होने के लिए मोहनीय कर्म के उदय की मंदता चाहिये और 62 MI NS ANTITIV तुलसी प्रज्ञा अंक 108 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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