Book Title: Tulsi Prajna 2000 01
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 67
________________ जीव के पांच भाव इस प्रकार मैंने यह समझ लिया है कि औदयकि भाव ही बंध का कारण होते हैं और औपशमिक, क्षायिक तथा क्षायोपशमिक भाव मोक्ष का कारण होते हैं। इनमें क्षायिक भाव की प्राप्ति मुझे इस जन्म में संभव नहीं है । औपशमिक भाव का सुयोग लग सकता है, पर उसके लिये मुझे क्षयोपशम को साधना होगा। उसका हितकर दिशा में उपयोग करना होगा। इस बात की तपास करनी होगी कि क्षयोपशम भाव मुझे अनादिकाल से सदा सर्वत्र प्राप्त रहा है, फिर मुझे अब तक आत्म कल्याण का मार्ग क्यों नहीं मिल पाया? कब और कैसे कार्यकारी होगा क्षयोपशम भाव ? क्षयोपशम भाव कर्मबंध का कारण नहीं है। वह मोक्ष का कारण कहा गया है। यह भी कहा गया है कि संसार में सभी जीवों को अनादिकाल से क्षयोपशम भाव प्राप्त होता है। उनमें भव्य और अभव्य दोनों प्रकार के जीव हैं। मोक्ष का कारण प्राप्त होते हुए भी अनन्त जीवों को मोक्ष का मार्ग कभी मिला नहीं, अभव्य जीवों को कभी मिलेगा भी नहीं। असंख्यात ऐसे दूरान्दर भव्य जीव भी संसार में हैं जिन्हें भव्य होते हुए भी मोक्ष मार्ग कभी नहीं मिलेगा। तब फिर यह प्रश्न स्वाभाविक ही है कि क्षयोपशम भाव मेरे कल्याण में कैसे कार्यकारी होगा? इस प्रश्न का समाधान पाने के लिए हमें क्षयोपशम भाव की कुछ और सूक्ष्म विवेचना करनी होगी। ज्ञानवरणीय-दर्शनावरणीय--मोहनीय और अंतराय, इन चारों घातियों कर्मों में ही क्षयोपशम भाव बनता है। अघातिया कर्मों में वह नहीं होता। हम ऊपर यह विचार कर चुके हैं कि चार घातिया कर्मों में से तीन का स्वभाव तो आत्मा के स्वाभाविक गुणों को अधिकांश में ढांप लेना तथा अल्प अंश में उन्हें उघड़ा छोड़ने का है, परन्तु चौथे घातिया मोहनीय कर्म का स्वभाव उन उघड़े हुए गुणों को विकारी बना देने का है। मेरे अपने गुणों का यह विकारी परिणमन ही नवीन कर्मबंध का कारण होता है। अनादिकाल से हमें सदा-सर्वत्र जो क्षयोपशम भाव प्राप्त रहा है, वह उपरोक्त तीन आवरणी कर्मों के क्षयोपशम से उत्पन्न भाव था। उसे ही पांच लब्धियों में 'क्षयोपशमलब्धि' के नाम से भी गिनाया गया है। यह क्षयोपशम तो हर जीव को अनादिकाल से प्राप्त है। किसी भी भव में जीव इससे रहित नहीं रहा। यह क्षयोपशम-लब्धि भी जीव को बारबार मिली पर उसका कल्याण का मार्ग प्रारम्भ नहीं हुआ। इसका कारण यही था कि मोहनीय कर्म का अनादि से उदय था जिसके कारण उसके श्रद्धा गुण का मिथ्यादर्शन रूप परिणमन होता रहा। इसी कारण जीव के शेष गुणों का भी मिथ्या या विपरीत परिणमन ही हुआ। उसके ज्ञान-दर्शन, श्रद्धा और वीर्य गुणों का मिथ्यादर्शन-मिथ्याज्ञान और मिथ्या चारित्र रूप परिणमन होता रहा । जीव के संसार-भ्रमण का यही कारण था। कमी यह रही कि तुलसी प्रज्ञा जनवरी-मार्च, 2000 TITTWITTIVITITI VITITINY 61 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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