Book Title: Tulsi Prajna 2000 01
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 57
________________ भाष्यकाल में स्थापना कुल तुलसी प्रज्ञा जनवरी-मार्च, 2000 जैन आचार डॉ. साध्वी श्रुतयशा जैन आचार-मीमांसा में अहिंसा का महत्त्वपूर्ण स्थान है। जहां भोजन का पचनपाचन होता है वहां जल, अग्नि, वायु, वनस्पति आदि की हिंसा अनिवार्य है। जैन मुनि तीन करण और तीन योग से अहिंसा के लिए कृतसंकल्प होते हैं, अतः वे आरम्भ-समारंभ नहीं करते। वे अपने लिए बनाए गए आहार को भी ग्रहण नहीं करते । वे मधुकर के समान यथाकृतजीवी होते हैं । विभिन्न घरों में थोड़ा-थोड़ा आहार ग्रहण करते हैं। जैन मुनि अपनी समस्त आवश्यकताओं की पूर्ति गृहस्थ कुलों से करते हैं, अत: उनके लिए यह भी ज्ञातव्य हो जाता है कि कौन-से घरों में जाए और कौन-से घरों में न जाए । प्रत्येक ग्राम अथवा नगर, शहर अथवा राजधानी, सभी में अनेक प्रकार के लोग निवास करते हैं - कुछ लोग भद्र प्रकृति वाले होते हैं, उन्हें दान देना अच्छा लगता है। कुछ लोगों को साधु अच्छे लगते हैं पर साधुओं के विधि-विधान से परिचित नहीं होते । एषणा के नियम नहीं जानते। कुछ लोग श्रद्धालु होने के साथ-साथ आहार - विधि के सम्यक् ज्ञाता भी होते हैं । दूसरी ओर कुछ लोग ऐकान्तिक अभिनिवेश से इतने ग्रस्त होते हैं जिन्हें साधुओं के घर में आया देखने मात्र से चिड़ होती है। कुछ साधुओं के प्रत्यनीक एवं ईर्ष्यालु होते हैं जो साधुओं को अपने घर आने से मना ही कर देते हैं । कुछ लोगों को साधु अच्छे नहीं लगते पर वे मुंह से कुछ कहते नहीं। इस प्रकार गृहस्थों भिन्न-भिन्न प्रकृति एवं मानसिकता के आधार पर साधुओं को यह विवेक करना आवश्यक हो जाता है कि कौन-सा कुल किस प्रकार से प्रवेश योग्य है अथवा नहीं? यही व्यवस्था 'स्थापनाकुल' के विधान का आधार है । Jain Education International 1 For Private & Personal Use Only \\\\\\\V 51 www.jainelibrary.org

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