Book Title: Tulsi Prajna 2000 01
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 62
________________ तुलसी प्रज्ञा अंक 108 अमुक-अमुक द्रव्य होने पर भी आचार्य, अतिथि आदि के लिए देना नहीं चाहेंगे।4 भाष्यकार ने गृहस्थों की इस चमढणा को शिकारी की कुतिया के उदाहरण से स्पष्ट किया है। एक शिकारी अपनी कुतिया को बार-बार छू--छू करके बुलाता है। वह बेचारी आती है, पर उसे कुछ नहीं मिलता। वह निराश लौट जाती है। बार-बार निराश लौटने से थक जाती है। अब वह शिकारी यदि उसे श्वापदन आदि के प्रयोजन से भी बुलाता है तो उद्विग्नता के कारण वह आना नहीं चाहती।५ २. द्रव्यक्षय-स्थापना के अभाव में बार-बार साधु अतिशय कुलों में प्रवेश करते हैं। वे घी, दूध, सूप, मोदक, पूड़ी आदि द्रव्य बिना कारण भी ले लेते हैं। सीमित द्रव्य और अधिक ग्राहक-फलतः द्रव्य खत्म हो जाते हैं। जब आचार्य, ग्लान आदि के लिए जरूरत होती है तब वे द्रव्य उपलब्ध नहीं होते । फलतः उन्हें परिताप, दुःख आदि होते हैं ।२६ यदि गृहस्थ भद्रप्रकृति वाला हो तो अमुक द्रव्य की ग्लान आचार्य आदि के लिए अपेक्षा है, ऐसा सोचकर पुनः खरीद लेगा अथवा जो घर में बनवाने योग्य है वह बनवा लेगा तो एषणा सम्बन्धी दोष लगेंगे। यदि वह प्रान्त (अभद्र) प्रकृति का है तो यहां तक भी कह सकता है-कूर भी साधुओं को दे दिया, पूड़ी भी साधुओं को दे दी, दाल सब कुछ साधुओं को दे दिया तो वे क्या तेरे उपपति हैं जो मेरा सारा धन देकर उनका पोषण कर रही हो। ऐसा कह कर वह पत्नी को पीट भी सकता है ।२७ ३. उद्गम आदि दोष-एक ही घर में जब अनेक साधु उत्क्रम से प्रविष्ट होते हैं तो उन्हें यह ज्ञात नहीं रह पाता कि अमुक वस्तु उनके घर में कितनी बनी थी? किसके लिए बनी थी? बनने के बाद किसी ने ली अथवा नहीं? जानकारी आदि के अभाव में पहले बनी हुई वस्तु का ग्रहण एक ने किया, दूसरा बाद में बनी हुई का कर लेता है । इस प्रकार उद्गम, उत्पादन एवं एषणा के अनेक दोषों के लगने की संभावना रहती है। ४. नियत-प्रयोजन-गच्छ में प्रायः निरन्तर स्निग्ध, मधुर आदि द्रव्यों की आवश्यकता रहती है। अत: यदि अतिशय कुलों की श्रद्धा, भावना आदि का ध्यान रखा जाता है तो वह एक प्रकार से गच्छ पर अनुकम्पा होती है तथा आचार्य, ग्लान, अतिथि आदि के सम्यक् वैयावृत्त्य एवं आतिथ्य में सहायता मिलती है। तीर्थ की वृद्धि एवं प्रभावना होती है।२८ यदि स्थापना कुलों को पूरी तरह ही स्थापित कर दिया जाए अर्थात् जब ज्यादा जरूरत होगी तब ही जाएंगे, ऐसा सोचकर एकान्तर उनकी गोचरी न की जाए तो उनकी स्थिति शुष्क गौ अथवा बगीचे जैसी हो जाती है। ब्राह्मण ने एक गाय को लगातार कई महिनों तक नहीं दूहा। सोचा-जीमनवार होगा तब एक साथ बहुत सा दूध मिल जाएगा। परिणाम हुआ-दूध सूख गया, चुलूकप्रमाण भी नहीं मिला । बगीचे का दृष्टान्त भी इसी के समान है। 56 AMRI TINITINITION ANNAINITION तुलसी प्रज्ञा अंक 108 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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