Book Title: Tulsi Prajna 2000 01
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

View full book text
Previous | Next

Page 50
________________ तुलसी प्रज्ञा अंक 108 चार शाखाएं हैं। इन शाखाओं की प्रतिशाखाएं गणगच्छादि नामों से जानी जाती हैं । नन्दिसंघ में अनेक गणगच्छादि है, उनमें से एक देशीयगण है । इसी देशीयगण में नेमिचन्द्र हुए हैं जो कर्नाटक में बहुत ही प्रसिद्ध हुए हैं। अतएव यह बहुत संभव है कि नेमिचन्द्र कर्नाटक के ही थे और यही उनकी गतिविधि का क्षेत्र था । सिद्धान्त चक्रवर्ती : देशीयगण के अनेक विद्वान् इस उपाधि से विभूषित हुए हैं। नेमिचन्द्र को भी यह महती पदवी प्राप्त थी। इस पदवी का शाब्दिक अर्थ 'सिद्धान्त शास्त्रों का सार्वभौम ' से हैं । इसका एक समानार्थी शब्द 'सैद्धान्तिक सार्वभौम' है, जो चामुण्डराय द्वारा नेमिचन्द्र के लिए ही प्रयुक्त हुआ है। जह चक्केण य चक्की छक्खंडं साहियं अविग्घेण । तह मइचक्केण मया छक्खंडं साहियं सम्मं ॥ क. का., 397 ॥ स्वयं नेमिचन्द्र ने इस गाथा द्वारा उनके सिद्धान्त चक्रवर्ती होने का कारण स्पष्ट किया है। इस गाथा का अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार चक्रवर्ती ने भरतक्षेत्र के छ: खण्डों को अपने वश में चक्र द्वारा किया है, ठीक उसी प्रकार मैंने ( नेमिचन्द्र) मेरे स्वयं के चक्र (बुद्धि) द्वारा सिद्धान्तशास्त्र के छः खण्डों को सम्यक् रूप से जाना है। चामुण्डराय के गुरु : चामुण्डराय गंगराज वंश के महासेनापति और विचक्षणमंत्री (953 ई. से 985 ई.) थे। इन्होंने साहस, पराक्रम और शूरवीरता के लिए बड़ी ख्याति अर्जित की थी। वे सुदक्ष सैन्य संचालक, राजनीतिज्ञ और परम स्वामीभक्त होने के अतिरिक्त कन्नड़, संस्कृत एवं प्राकृत भाषाओं के विद्वान्, कवि, टीकाकार, कलाकारों के प्रश्रयदाता और एक महान् प्रश्नकर्त्ता भी थे। श्रवणबेलगोला स्थित भगवान बाहुबली की 57 फुट उत्तुंग अद्वितीय प्रतिमा का निर्माण उन्होंने ही कराया था । दक्षिण भारत का इतिहास इनके बिना अधूरा है। ऐसे चामुण्डराय के विद्या गुरु नेमिचन्द्र थे । उनकी श्रद्धा अपने विद्या गुरु के प्रति असीम थी । चामुण्डराय के बाल्यावस्था का नाम 'गोम्मट' था। इसी नाम के आधार पर नेमिचन्द्र ने अपने ग्रंथ का नाम 'गोम्मट सार' रखा है जिसका निर्माण चामुण्डराय के लिए ही किया गया था। इस ग्रंथ के कर्मकाण्ड भाग के गाथा नं. 966 से 972 तक नेमिचन्द्र ने चामुण्डराय की जितनी प्रशंसा और विजय आकांक्षा प्रकट की हैं उतनी दिगम्बर सम्प्रदाय के किसी भी आचार्य ने किसी भी ग्रंथ में किसी राजा या मंत्री की नहीं की होगी । चामुण्डराय ने 'चामुण्डरायपुराण' (978 ई.), गोम्मटसार पर कर्नाटक वृत्ति 'वीरमार्तण्डी' और 'चारित्रसार' इन तीन ग्रंथों की रचना की है जिनमें पहले दो कन्नड़ भाषा में और तीसरी संस्कृत में हैं । 44 Jain Education International For Private & Personal Use Only तुलसी प्रज्ञा अंक 108 www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128