Book Title: Tulsi Prajna 2000 01
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 27
________________ जगत और सृष्टि की व्याख्या अकृत है, अनादि है। अनादि है वहां फिर कृत की कोई जरूरत नहीं। अनादि को भी कृत मानें तो फिर यह प्रश्न होगा कि ये सारे पदार्थ, ये द्रव्य पहले नहीं थे फिर बनाये गये। अगर पहले नहीं थे, फिर बनाये गये तो सारी की सारी एक सृष्टि काल्पनिक सी हो गयी, कृत्रिम हो गयी। वह पहले से थे और फिर बनाये गये तो क्या बनाया गया? बनाने का प्रयोजन क्या? आदि-आदि तर्कशास्त्र में बहुत प्रश्न हैं। जहाँ अनादित्व है वहाँ कृर्तत्व की कोई अपेक्षा नहीं। फिर प्रश्न एक और चिन्तन में आया कि कर्त्ता न मानो तो कोई नियमन करने वाला तो होगा। कर्त्ता नहीं है और कोई नियामक नहीं है तो इतनी बड़ी दुनियां कैसे चलेगी। हम अपने शरीर को भी देखें, हमारे नाड़ी तंत्र में भी दोनों प्रकार की क्रियाएं होती हैं। इच्छा चालित भी है और स्वतः चालित भी है। स्वतः चालित भी दुनिया में होता है, नियम से होता है। नियंता होना आवश्यक नहीं है, नियम होना जरूरी है। नियम के बिना कुछ भी नहीं चलता। नियम भी किसी ने बनाये नहीं। सार्वभौम नियम हैं । कोई नियम को बनाने वाला नहीं है। कर्ता भी नहीं, नियंता भी नहीं। फिर एक प्रश्न उभरा कि कर्म का फल कौन देगा? अपराध करने वाला स्वयं तो दंड नहीं लेता। कोई न कोई दण्ड देता है। तर्क तो बहुत स्थूल है पर चलता है। कर्म फल देने वाला अगर ईश्वर नहीं है तो कर्म की विफलता हो जायेगी। इस सन्दर्भ में कुछ चिन्तन मांगता है कि कर्म और ईश्वर दोनों में से एक की सत्ता स्वीकार करना ज्यादा अच्छा है। यदि कर्म कुछ करता है तो ईश्वर की कुछ जरूरत नहीं है। ईश्वर करता है तो कर्म को स्वतन्त्र मूल्य देने की जरूरत नहीं है। वह तो उसके करने की एक प्रक्रिया मात्र होगा। फिर अच्छे-बुरे, पुण्य-पाप की सारी चर्चाएं समाप्त हो जायेंगी। बहुत बड़ी प्रश्नावली सामने है, उस पर चिन्तन के बाद भी ऐसा लगता है कि विश्व को अपने नियमों से संचालित, कर्म भी अपने नियम से संचालित, फल देने वाले और कर्तृत्व विहीन अकृत रूप में स्वीकार करें। अनादि अस्तित्व और अस्तित्व के साथ जुड़ा हुआ परिणमन, जो परिणाम होता रहता है, बदलता रहता है। अपने नियमों से ही बदलता रहता है शायद अधिक बुद्धिसंगत बात हो सकती है। उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य की त्रिपदी ने इस सृष्टि और विश्व की व्याख्या के विषय में काफी सुविधा हमें दी है। विश्व और सृष्टि दो शब्द हैं? अर्थ दोनों के भिन्न हैं। विश्व तो अस्तित्व का एक समवाय है जिसमें पांच अस्तिकाय होते हैं, द्रव्य होते हैं, वह लोक है। इतना तो विश्व के साथ जुड़ा हुआ है। जो हो रहा है, यह सृष्टि का मार्ग है। सृष्टि में तो बदलाव आता है, बदलती रहती है। सारे परिवर्तन होते रहते हैं। आचार्य तुलसी ने जैन सिद्धान्त दीपिका में बहुत सुन्दर सूत्र लिखा है-जीव और पुद्गलों के विभिन्न संयोगों से सृष्टि का निर्माण होता है। विविध परिवर्तन होते हैं, विविध रूप बनते हैं। दोनों का संयोग सृष्टि का निर्माण करता तुलसी प्रज्ञा जनवरी-मार्च, 2000 पY 21 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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