Book Title: Tulsi Prajna 2000 01
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 21
________________ जगत और सृष्टि की व्याख्या लिखा, बहुत शास्त्र पढ़कर भी जो उसका अर्थ नहीं जानता है वह गधे की तरह चन्दन का भार ढ़ो रहा है। हमारे साथ भी यही हुआ । सूत्रपाठ पर, शब्दों पर ध्यान हमारा केन्द्रित हो गया और अर्थ की परम्परा का विलोप कर दिया गया । अर्थ की परम्परा नहीं है तो सूत्र के वाक्यों को पकड़ना और ठीक हम पकड़ रहे हैं, इसका सत्यापन करना, निर्णय करना भी हमारे वश की बात नहीं है। यह बहुत बड़ी समस्या है। इस समस्या को सुलझाने का एक ही उपाय हो सकता है कि हम गहरी एकाग्रता, ध्यान के द्वारा सम्पर्क स्थापित कर सकें । ज्ञान की भूमिका में हम अधिक रहें। पढ़म नाणं तओ दया - बहुत साधारण वाक्य है कि ज्ञान प्रथम है, इस बात को हम न भूलें । सुकरात ने ज्ञान को परम शुभ माना । हमारा सारा प्रामाणिकता का, सत्यापन का आधार नहीं बनता यदि ज्ञान नहीं होता। यह सही है या गलत है, इसका आधार ज्ञान ही बनता है। ज्ञान के आधार पर आचार सही है या गलत है, का निर्णय हम कर पाते हैं। मूल तत्व तो ज्ञान है, इसीलिए सत्य की खोज में प्रमाण भी ज्ञान को माना गया। ज्ञान की प्रक्रिया में तीन बातें बतलाई गई हैं- संवेदन की शक्ति, प्रज्ञा की शक्ति, विवेक की शक्ति । संवदेनशीलता, प्रज्ञा और विवेक, ये जैन भाषा में मति - ज्ञान और श्रुत - ज्ञान की सीमा में आ जाते हैं। विवेक को हम प्रमाण तो मान सकते हैं किन्तु अन्तिम प्रमाण नहीं। अन्तिम प्रमाण बनता है अतीन्द्रिय ज्ञान । अतीन्द्रिय ज्ञान में भी अन्तिम प्रमाण बनता है कैवल्य ज्ञान । अवधि ज्ञान प्रमाण है, मनः पर्यव ज्ञान भी प्रमाण है किन्तु पूर्ण प्रमाण नहीं । अन्तिम प्रमाण केवल कैवल्य ज्ञान है, सर्वथा जो ज्ञान निरावरण हो जाता है शेष सब सावरण ज्ञान हैं। जहां सावरण ज्ञान हैं वहां हम इन्द्रिय के माध्यम से जानते हैं, मन के माध्यम से जानते हैं, कुछ आत्मा से भी जानते हैं। जहां ज्ञान निरावरण होता है वहाँ केवल आत्मा के द्वारा साक्षात्कार होता है । न इन्द्रियों की अपेक्षा, न मन की अपेक्षा । इन्द्रियों की अपेक्षा नहीं, इसलिए संवेदन शक्ति की आवश्यकता भी नहीं होती। मन की भी अपेक्षा नहीं होती, बुद्धि की भी अपेक्षा नहीं होती, इसीलिए प्रज्ञा और विवेक की भी आवश्यकता नहीं होती । अतीन्द्रिय ज्ञान प्रमाण है । हम आगम को इसलिए प्रमाण मानते हैं कि महावीर कैवल्य ज्ञानी थे। कैवल्य ज्ञान के द्वारा जाने हुए पदार्थों का उन्होंने प्रतिपादन किया । इसलिए उनकी वाणी हमारे लिए प्रमाण बन गयी । प्रमाण की अन्तिम कसौटी कैवल्य ज्ञान, निरावरण ज्ञान, जिस ज्ञान पर कोई आवरण नहीं है । ईश्वरीय ज्ञान को भी निरावरणीय ज्ञान माना जाता है। मनुष्य का ज्ञान भी निरावरणीय ज्ञान होता है। सच्चाई में कोई अन्तर नहीं । चाहे ईश्वर के स्थान पर मनुष्य को बिठायें और चाहें मनुष्य के स्थान पर ईश्वर को बिठायें। मूल प्रश्न है निरावरण होना, ज्ञान पर कोई आवरण का न होना । जो निरावरण है, चाहे उसको ईश्वरीय ज्ञान कह दें, चाहे मानसिक ज्ञान कह दें । कोई अन्तर नहीं आयेगा । मूल शर्त रहेगी कि निरावरण ज्ञान होना तुलसी प्रज्ञा जनवरी-मार्च, 2000 Jain Education International For Private & Personal Use Only 15 www.jainelibrary.org

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