Book Title: Tulsi Prajna 2000 01
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 19
________________ प्रवचन पाथेय जगत और सृष्टि की व्याख्या 4 आचार्य महाप्रज्ञ मनुष्य श्रेष्ठ प्राणी है। महाभारत का यह सूक्त–'न मानुषात् श्रेष्ठतरम् हि किंचित्' जैन दर्शन के संदर्भ में यह बहुत सटीक लगता है। मनुष्य से बढ़कर कोई दुनिया में श्रेष्ठ प्राणी नहीं है यानि सत्य का अन्तिम निर्णायक और शिखर पुरुष मनुष्य है। दूसरा कोई नहीं है। दो प्रकार की विचार धाराएं रही। वैदिक परम्परा में आया कि वेद ईश्वरीय ज्ञान है। श्रमण परम्परा में महावीर ने कहा कि ज्ञान का अन्तिम शिखर मनुष्य होता है, दूसरा कोई नहीं। प्रश्न उठता है कि हम किसको प्रमाण मानें? क्या वह मनुष्य प्रमाण है जो मनुष्य वीतराग है, केवली है या कुछ विशेषताओं से सम्पन्न है? जैन आगमों में प्रमाण के विचार पर पांच या छ: कोटियां निर्धारित की गईं। केवलज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनः पर्यव ज्ञानी, चतुर्दशपूर्वी, दशपूर्वी । कुछ आचार्य पांच मानते हैं और कुछ आचार्य छः। छट्ठा है अभिन्नदशपूर्वी । हमारा अतिशय ज्ञान ही प्रमाण है। ज्ञान का अधिकारी मनुष्य है, उस अतिशय ज्ञान को प्राप्त करने वाला मनुष्य है, इस अपेक्षा के आधार पर कहा जा सकता है कि मनुष्य सर्वश्रेष्ठ है। ग्रन्थ प्रमाण नहीं है, यह सही बात है। जब तक आगम पुरुष है, ग्रन्थ की कोई आवश्यकता नहीं है। वाणी की कोई आवश्यकता नहीं है। आगम पुरुष के पांच या छः प्रकार बतला दिये गये। जब ये अनुपलब्ध हों, न केवलज्ञानी उपलब्ध हों, न अवधिज्ञानी तब उनके द्वारा जो कहा गया वह भी मान्य होता है। किन्तु उस मनुष्य की उपस्थिति में नहीं, जो ज्ञान के शिखर पर पहुंच चुका है, अतिशयज्ञानी हो चुका है । उस समय न शास्त्र, न आगम, तुलसी प्रज्ञा जनवरी-मार्च, 2000 IIIIIIIIIIIIIIIIINV 13 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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