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'एकादश जे अङ्ग को मिलता वचन सुजान ।
सर्व मानवां योग्य मुझ पइन्ना प्रमुख पिछाण ॥२० अन्य मागम न मानने के कारण
अन्य भागमों का न मानने का कारण उनमें आए हुए विषमवाद ही हैं । विषमवाद अधिकार में इस पर उन्होंने अपने विचार स्पष्ट किए हैं। भगवान् सर्वज्ञ और केवली होते हैं। उनका वचन, विषमवाद तथा व्यभिचारिक नहीं हो सकता।
पइन्नादि में मूल आगमों से विपरीत उल्लेख आता है अत: वे घटनाएं कैसे मान्य होंगी। एक प्रसंग पर वे चर्चा करते हुए प्रश्नोत्तर-तत्त्व-बोध में लिखते हैंकल्पसूत्र में भगवान् के संहरण की चर्चा करते हुए लिखा है कि भगवान् ने उसे जाना नहीं। जबकि आचारांग में स्पष्ट है कि मैं संहरण से पहले, पीछे और संहरण करते समय इस घटना को अच्छी तरह जान रहा था। आचारांग का कथन यथार्थ है क्योंकि संहरण की क्रिया देवता द्वारा की गई स्थूल क्रिया है जिसे करते हुए देवता को भी असंख्यात समय लग जाता है । अवधिज्ञान से मुक्त भगवान् ने उसको साक्षात् जाना।
निशीथ की चूणि के १२ वें उद्देश्य में रात्रि भोजन की अनुज्ञा है। जबकि बृहत्कल्प में शरीर के कारण से मुनि ने भोजन ग्रहण किया किन्तु बाद में संदेह हुआ कि सूर्य उदय हुआ अथवा नहीं। इसी प्रकार सूर्यास्त के समय भी भोजन ग्रहण किया। मन में संदेह हुआ कि सूर्य अस्त हुआ अथवा नहीं ऐसी शंकापूर्ण स्थिति में भोजन करने वाले मुनि को प्रायश्चित आता है।
निशीथ चूणि का यह कथन युक्तिसंगत नहीं है, क्योंकि रात्रि भोजन की अनुमति नहीं दी जा सकती। इस प्रकार सचित्त अम्ब सेवन की अनुमति भी नहीं दी जा सकती। भय निवारण के लिए सचित्त दण्ड भी कैसे मुनि रख सकता है । भरत को छोड़कर एक साथ १०८ ऋषभ के पुत्र एवं पौत्र सिद्ध हुए । यह अयुक्तिपूर्ण बात है । जब बाहुबलि का आयुष्य चौरासी लक्ष पूर्व का है तब एक साथ सबकी सिद्धि कैसे होगी। इसी प्रकार अनेक प्रसंग हैं जिनके द्वारा यह निष्कर्ष निकलता है कि आगम मान्यता और अमान्यता का कारण उनकी अपनी मति नहीं है अपितु आगम का ही निर्देश है।
• आप्त पुरुष, वीतराम, सर्वज्ञ के वचन ही आगम हो सकते हैं।
• उनकी साक्षी से अवधिमन: पर्यवज्ञानी तथा दस चउदह पूर्व धारी द्वारा रचित ग्रंथ भी आगम हो सकते हैं।
___० आप्त पुरुष, अवधि, मनः पर्यवज्ञानी की साक्षी के अभाष में रचित ग्रंथ, आगम की कोटि में नहीं आते।
आप्त पुरुषों के अतिरिक्त अन्य आचार्यों द्वारा रचित ग्रन्थ ग्यारह अङ्ग के अनुरूप हों तब ही उनके कथन को स्वीकार किया जा सकता है।
___० आममों के मान्य और अमान्य करने के पीछे जयाचार्य का जो स्पष्ट दृष्टिकोण है, वह मागम एवं परम्परा द्वारा पुष्ट ही नहीं, युक्ति-संगत भी लगता है।
तुलसी प्रज्ञा
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