Book Title: Tulsi Prajna 1990 06
Author(s): Nathmal Tatia
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 18
________________ भी सार्वदिक सत्य नहीं, अतः प्रमेय के साथ अव्यभिचारी ज्ञान ही प्रामाण्य का नियामक हो सकता है अथवा प्रमाण का कर्म प्रामाण्य है, जो पदार्थ के निश्चय करने रूप लक्षण वाला हो।५ प्रामाण्य और अप्रामाण्य का निर्धारण प्रामाण्य के क्षेत्र में उसके नियामक तत्व की भांति यह प्रश्न भी उठता है कि प्रामाण्य अथवा अप्रामाण्य का निर्धारण किस प्रकार होता है। उन दोनों का ज्ञान तज्ज्ञान से होता है या तद्भिन्न ज्ञान से । अथवा इनका प्रामाण्य और अप्रामाण्य स्वतः होता है अथवा परतः । जानने के साथ-साथ "यह जानना ठीक है" ऐसा निश्चय होना स्वतः निश्चय है और जब जानने के साथ-साथ "यह जानना ठीक है" ऐसा निश्चित नहीं होता तब दूसरी कारण सामग्री द्वारा उसका निश्चय होना परतः निश्चय है। प्रामाण्य और अप्रामाण्य पर पुनः ज्ञप्ति और उत्पत्ति ---इन दो दृष्टियों से विचार किया गया है । ज्ञप्ति का अर्थ है-ज्ञान की दृष्टि से तथा उत्पत्ति का अर्थ हैउत्पत्ति की दृष्टि से । ज्ञप्ति तथा उत्पत्ति परस्पर भिन्न हैं । ज्ञप्ति के भी कुछ साधन होते हैं और उत्पत्ति के भी । इनमें ज्ञप्ति के साधनों को ज्ञान ग्राहक तथा उत्पत्ति के सानों को ज्ञानोत्पादक सामग्री कहते हैं । विभिन्न मत जो दार्शनिक यह स्वीकार करते हैं कि ज्ञान का प्रामाण्यीकरण किसी अन्य ज्ञान से नहीं हो सकता, वे स्वतः प्रामाण्यवादी कहलाते हैं । स्वतः प्रामाण्यवाद के अनुसार प्रत्येक ज्ञान में प्रामाण्य स्वतः होता है; जिसका अर्थ है कि ज्ञान और उसके प्रामाण्य के कारण भिन्न-भिन्न न होकर एक ही हैं । जिन कारणों से ज्ञान ज्ञात होता है उन्हीं कारणों से उसके प्रमात्व का भी ज्ञान हो जाता है । इस सिद्धान्त के अनुसार ज्ञान के साथ उसके प्रामाण्य का ज्ञान भी स्वतः हो जाता है। यह ज्ञप्ति की दृष्टि से स्वतः प्रामाण्यवाद है । उत्पत्ति की दृष्टि से स्वतः प्रामाण्य का अर्थ है-जिन कारणों से ज्ञान उत्पन्न होता है उन्हीं कारणों से उनमें प्रामाण्य की उत्पत्ति होना । इसके विपरीत परतः प्रामाण्यवाद के अनुसार जब हमें ज्ञान उत्पन्न होता है तब उसके प्रामाण्य के बारे में कोई निश्चय नहीं होता है, बाद में अन्य ज्ञान के द्वारा उसके प्रामाण्य का ज्ञान होता है ।१६ इसी तरह उत्पत्ति की दृष्टि से उनकी मान्यता है कि ज्ञान और उसके प्रामाण्य की उत्पत्ति भिन्न-भिन्न कारणों से होती है। स्वत: अप्रामाण्य और परत: अप्रामाण्य भी इसी तरह सरलता से गम्य है। ज्ञप्ति की दृष्टि से स्वत: अप्रामाण्य का अर्थ है-- किसी भी ज्ञान के अप्रामाण्य का ज्ञान उन्हीं कारणों से होता है जिससे उस ज्ञान का ज्ञान होता है तथा उत्पत्ति की दृष्टि से ज्ञान तथा अप्रामाण्य के कारण एक ही होंगे। परतः अप्रामाण्य के अनुसार ज्ञानकरण तथा अप्रामाण्यकरण एक ही न होकर भिन्नभिन्न होंगे। भारतीय दर्शन में प्रामाण्य और अप्रामाण्य भारतीय दर्शन में प्रामाण्य और अप्रामाण्य के विषय में मुख्यत: निम्नलिखित पक्ष तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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