Book Title: Tulsi Prajna 1990 06
Author(s): Nathmal Tatia
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 43
________________ ५. अकाले चरसि भिक्खू, कालं नो पडिलेहसि अन्नं अन्नकाले पाणं पाणकाले वत्थं वत्थकाले । प्रस्तुत प्रसंग में आगमों में प्रयुक्त कालपडिलेहणा (काल प्रतिलेखना) शब्द विमर्शनीय है। काल प्रतिलेखना का अर्थ है-काल की पहचान। जो व्यक्ति कालज्ञ होता है वह सफलता के शिखर पर स्वत: आरोहण करने लगता है । महावीर कहते हैं कि "खणं जाणाहि पंडिए" क्षण को जानने वाला पंडित होता है। समय का अंकन ही जीवन का मूल्यांकन है। समय के प्रति जागरूक व्यक्ति एक क्षण भी प्रमाद नहीं कर सकता। पाश्चात्त्य विद्वान् फेंकलिन का कथन है---Do not squander time for that is the stuff life is made of' 'अर्थात् समय को बरबाद मत करो, क्योंकि इसी से जीवन बना है। बीता हुआ समय और कहे हुए शब्द किसी भी कीमत पर वापिस नहीं आ सकते। इसलिए समय के प्रति जागरूकता ही व्यक्ति को महानता की सीढ़ियों पर चढ़ा सकती है। शेक्सपीयर अधिकांशतः अपने अतीत जीवन की आत्मालोचना करते हुए कहा करते थे--"I wasted time and now Doth time waste me" तात्पर्य यह है कि मैंने समय को नष्ट किया और अब समय मुझे नष्ट कर उत्तराध्ययन के २६वें अध्ययन में गौतम भगवान् महावीर से पूछते हैं कि भंते ! काल प्रतिलेखना से जीव क्या प्राप्त करता है ? महावीर कहते हैं कि काल प्रतिलेखना से जीव ज्ञानावरणीय कर्मों का क्षय करता है। टीकाकार शांत्याचार्य कालप्रतिलेखना को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि ज्ञान, ध्यान तथा सेवा आदि कार्य उपयुक्त समय पर करना ही काल प्रतिलेखना है। वैदिक परम्परा में कालविज्ञान का मूल यश है किंतु जैन परम्परा में इसका मूल साधुओं की दिनचर्या है। उत्तराध्ययन के २६वें अध्ययन में श्रमण की दिनचर्या को विभिन्न कालों में विभक्त कर दिया गया है, जिससे वह व्यवस्थित रूप से समय की प्रतिलेखना कर सके । सूर्योदय से सूर्यास्त तक तथा सूर्यास्त से सूर्योदय तक की व्यवस्थित मुनिचर्या इस अध्ययन में हमें प्राप्त होती है । इस अध्ययन में वस्त्र, पात्र एवं उपकरणों की प्रतिलेखना के काल का भी समुचित निर्देश मिलता है। ओघनियुक्ति में भी इस विषय में विस्तार से वर्णन मिलता है। प्रस्तुत अध्ययन में दिन के चार प्रहरों में करणीय कार्यों की सूची इस प्रकार निर्दिष्ट है-मुनि प्रथम प्रहर में स्वाध्याय, दूसरे में ध्यान, तीसरे में भिक्षा तथा चौथे प्रहर में ध्यान करे। समय का यह निर्धारण आगमकालीन है। परवर्ती काल में द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव के अनुसार इसमें परिवर्तन भी होता रहा है । बृहत्कल्प सूत्र में प्रथम एवं चरम प्रहर की भिक्षा का समर्थन मिलता है । ओघ नियुक्ति भाष्य में भी आयवादिक विधि के अनुसार दिन में दो-तीन बार भिक्षा का विधान मिलता है। काल के अनुसार भी भिक्षाचर्या के समय में अंतर आता है। शिशिरऋतु में बारह या एक बजे भिक्षा मिलती है जबकि ग्रीष्मऋतु में दस बजे ही भिक्षा का समय हो जाता है। खण्ड १६, अंक १ (जून, ९०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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