Book Title: Tulsi Prajna 1990 06
Author(s): Nathmal Tatia
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 50
________________ मतिज्ञान एवं श्रुतज्ञान की भेदरेखा समणी मंगलप्रज्ञा प्राचीन कर्मशास्त्र में ज्ञानावरण कर्म की प्रकृतियों के उल्लेख के समय मतिज्ञानावरण एवं श्रुतज्ञानावरण- इन दो प्रकृतियों का पृथक्-पृथक् उल्लेख है । अत: इस कथन से स्पष्ट है कि इनके ज्ञान भी अलग-अलग हैं। प्राचीन परम्परा से ही मतिज्ञान एवं श्रुतिज्ञान को पृथक् स्वीकार किया गया है और आज भी उनका वही रूप स्वीकृत है, परन्तु इन दोनों का स्वरूप परस्पर इतना संमिश्रित है कि इनकी भेदरेखा करना कठिन हो जाता है | जैन-परम्परा में इनकी भेदरेखा स्थापित करने के लिए तीन प्रयत्न हुए१. आगमिक २. आगम मूलक तार्किक ३. शुद्ध तार्किक । आगमिक प्रयत्न आगम परम्परा में इन्द्रिय मनोजन्य ज्ञान अवग्रह आदि भेदवाला मतिज्ञान था तथा अंग - प्रविष्ट एवं अंग - बाह्य के रूप में प्रसिद्ध लोकोत्तर जैन शास्त्र श्रुतज्ञान कहलाते थे । अनुयोगद्वार तथा तत्त्वार्थसूत्र में पाया जाने वाला श्रुतज्ञान का वर्णन इसी प्रथम प्रयत्न का फल है | आगमिक परम्परा में अंगोपांग के ज्ञान को ही श्रुतज्ञान कहा है, अंगोपांग के अतिरिक्त सारा मतिज्ञान है । अंगोपांग से भिन्न वेद, व्याकरण, साहित्य, शब्द संस्पर्शी ज्ञान, शब्द संस्पर्श रहित ज्ञान सारा ही मतिज्ञान है । तत्त्वार्थसूत्र में कहा गया है कि किसी व्यक्ति में एक, दो, तीन और चार ज्ञान एक समय में हो सकते हैं । उमास्वाति के बाद की परम्परा ने ऐसा स्वीकार नहीं किया है। उसके अनुसार किसी भी प्राणी में कम से कम दो ज्ञान तो होंगे ही । तत्त्वार्थ के एक ज्ञान के उल्लेख का तात्पर्य है - श्रुतज्ञान अंगोपांग रूप है, वह सब में हो यह जरुरी नहीं है । अतः अंगोपांग रहित सारा ज्ञान ही आगम परंपरा में मतिज्ञान था और इस अपेक्षा से व्यक्ति में एक ज्ञान माना जा सकता है । असोच्चा केवली का उल्लेख भी शायद इस एक ज्ञान की ही फलश्रुति है । जिसने अंगोपांग का श्रवण अध्ययन नहीं किया हो वह मतिज्ञानी है, वह जब केवली हो जाता है तब उसे "असोच्चा केवली" कह दिया जाता हो, ऐसी संभावना की जा सकती है । आगम मूलक तार्किक इस दूसरे प्रयत्न नेमति, श्रुत के भेद को तो स्वीकार कर लिया किन्तु उनकी भेदरेखा स्थिर करने का व्यापक प्रयत्न किया गया। प्रथम परंपरा जो आगम को ही श्रुतज्ञान मानती थी इसके अतिरिक्त दूसरी परंपरा ने आगम के अतिरिक्त को भी श्रुतज्ञान के रूप में स्वीकार किया । जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने कहा ४६ Jain Education International For Private & Personal Use Only तुलसी प्रज्ञा www.jainelibrary.org

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