Book Title: Tulsi Prajna 1990 06
Author(s): Nathmal Tatia
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 52
________________ पूर्वक नहीं होता। बाचार्य जिनभद्रगणि क्षमाश्रमाय ने मति और अत की भिन्नता के कारणों का निरूपण करते हुए कहा "लखणमेमाहेऊ फलभावओ भेय इन्दिय विभागा। वाग-पख स्भूए-पर भेआभेओ मइ मुयाणं । वि. गा. ६७ १. लक्षण कृत भेद २. मतिज्ञान कारण है, श्रु तज्ञान कार्य है। ३. मतिज्ञान के २८ भेद हैं, श्रुतज्ञान के १४ भेद हैं। ४. श्रु तज्ञान श्रोत्रंद्रियों का विषय है जबकि मति श्रुत के अतिरिक्त अन्य इन्द्रियों का भी विषय है। ५. मतिमूककल्पा है, श्र त अमूककल्प है । ६. मतिज्ञान अनक्षर होता है, श्रुतज्ञान अक्षर होता है । ७. मतिज्ञान स्वप्रत्यायक ही होता है, श्रुतज्ञान स्व-गर अवबोधक होता है। जो सम्मुख आए हुए को जानता है वह अभिनिबोधिक ज्ञान है । जो सुनता है वह श्रु तज्ञान है। वक्ता एवं श्रोता का जो श्रुतानुसारी ज्ञान है, वह श्रुतज्ञान है तथा उनका अतातीत ज्ञान मतिज्ञान है ।" श्रु तज्ञान श्रोत्रेन्द्रिय लब्धि रूप ही होता है किन्तु सारी श्रोत्रोपलब्धि श्रु तज्ञान नहीं होती है, वह मति भी होती है । मतिज्ञान वार्तमानिक है जबकि श्रु त त्रैकालिक है । इस प्रकार मति और श्रुत में परस्पर भेदाभेद है । मति एवं श्रत की इस प्रकार की भेदरेखा का प्रयत्न आगम मूलक तार्किक विचारधारा का परिणाम है। शुद्ध ताकिक दृष्टि ____ मति-श्रुत के बारे में तीसरी दृष्टि के जनक सिद्धसेन दिवाकर हैं। उन्होंने मति एवं श्रुत के भेद को ही अमान्य किया है। उनके अनुसार श्रुतज्ञान मतिज्ञान के ही अन्तर्गत है, जिस प्रकार स्मृति आदि मति के अन्तर्गत है। उनका कहना है कि श्रु तज्ञान को मतिज्ञान से पृथक् मानने पर कल्पना गौरव होता है । अर्थात् जब श्रु तज्ञान का जो कार्य बताया गया है वह मतिज्ञान के द्वारा ही संपादित हो जाता है । तब श्रु तज्ञान को मति से पृथक् स्वीकार करके कल्पना गौरव क्यों किया जाए ? मति और श्रत में अभेद है। इनको पृथक् मानने से वैयर्थ्यता एवं अतिप्रसंग ये दो दोष उपस्थित होते हैंवैयातिप्रसंगाभ्यां न मत्यभ्यधिकं श्रुतम् । यह सिद्धसेन दिवाकर की शुद्ध ताकिक परम्परा है। जिन्होंने दोनों के भेद की ही अमान्य कर दिया है। उपर्युक्त सारी परम्पराओं का उल्लेख आचार्य यशोविजयजी ने ज्ञानबिन्दु नामक ग्रन्थ में सूक्ष्म दृष्टि से किया है। सन्दर्भ : १. श्रुतानुसारित्वं धारणात्मक पदपदार्थसम्बन्ध प्रतिसंधानजन्य ज्ञानस्वम् ।"-ज्ञान बिन्दु, पृष्ठ-६ २. विशेषा. भा., गा. १०० की टीका ३. Studies in Jain Philosophy, P. 55 ४. विशेषा. भा., गा. ९८ ५. विशेषा. भा., गा. १२१ 100 तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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