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यह व्याख्या कुछ भ्रामक लगती है । आधुनिक विज्ञान के आधार पर भी यदि हम विचार करें तो यह व्याख्या गलत सिद्ध होती है । आधुनिक विज्ञान के आधार पर पदार्थ का सबसे छोटा मौलिक कण क्बार्क है । क्वार्क भी कई प्रकार के होते हैं । प्रत्येक क्वार्क का रंग तथा आवेश निश्चित होता है । यदि क्वार्क ही अन्तिम मौलिक कण है तो उसका रंग तथा आवेश निश्चित ही होगा । कुछ वर्षों पूर्व तक इलैक्ट्रोन, प्रोटोन तथा न्यूट्रोनों को मौलिक कण माना जाता था लेकिन चूंकि इनको एक दूसरे में बदला जा सकता है, अतः ये मौलिक कण नहीं हैं। इलैक्ट्रोन पर ऋणात्मक आवेश होता है तथा प्रोट्रोन पर धनात्मक आवेश । धनात्मक आवेशयुक्त प्रोट्रोन कण को ऋणात्मक आवेशयुक्त कण में बदला जा सकता है । तब प्रोट्रोन तो मौलिक कण रहा ही नहीं । इसी प्रकार अन्य कण भी हैं।
यहां मेरे कहने का तात्पर्य मात्र यह है कि २०० प्रकार के परमाणुओं में प्रत्येक परमाणु के मौलिक / मूलभूत गुणों का एक निश्चित सेट होता है । यदि कोई परमाणु काले वर्ण वाला है और यदि वह स्कन्ध में सम्मिलित होने के बाद पुनः अलग भी हो जाता है तो उसका वर्ण काला ही रहेगा। हां, यह हो सकता है कि उसके काले वर्ण की तीव्रता में कमी या वृद्धि हो जाय । परमाणु के मूलभूत / मौलिक गुण न मानने का अर्थ है कि परमाणु का अस्तित्व ही न मानना । दूसरी बात यह है कि जब एक परमाणु दूसरे परमाणु के सम्पर्क में आकर स्कन्ध रूप परिणत होता है तब उसके स्पर्श, रस, गंध तथा वर्ण गुण एक दूसरे से प्रवाहित हो सकते हैं । यदि एक परमाणु नीला है तथा दूसरा पीला है, तो हो सकता है कि इन दोनों से बनने वाला स्कन्ध नीला हो, हो सकता है कि पीला हो, और यहां तक कि इन दोनों रंगों से भिन्न कोई तीसरा रंग ही हो । लेकिन स्कन्ध टूटने पर जब ये परमाणु अलग-अलग होंगे तब इनका क्रमशः वर्ण नीला तथा पीला ही होगा । यदि ऐसा नहीं मानेंगे तो परमाणु की मौलिकता ही समाप्त हो जाएगी ।
संदर्भ :
१. 'जैन पदार्थ - विज्ञान में पुद्गल, ले० – मोहनलाल बांठिया, (मई, १९६०) । २. ‘Theory of Atom in the Jain Philosophy' by J.S. Zaveri, (1975)
३. ‘The ultimate Particle of Matter 'Dr. A. K. Jain, Tulasi - Prajna (June 1986), P. 70-76.
४. 'स्कन्ध के भेद : एक समीक्षात्मक अध्ययन' - डॉ० अनिल कुमार जैन, तुलसी प्रज्ञा (मार्च १६८७ ) ; पू० ४०-४२ ।
५. 'Colour : An Innate Property of the Matter ' — Dr. Anil Kumar Jain, Tulasi-Prajna (December 1988), P. 57-60,67.
६. 'जैन अध्यात्म' – पं० महेन्द्र कुमार जैन न्यायाचार्य, अनेकांत, ( सितम्बर, १९४८ ) पृष्ठ- ३३६ ।
खण्ड १६, अक १ (जून, ९० )
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