________________
ज्ञान के अतिचारों में भी प्रथम आकार काल से संबंधित है । अस्वाध्याय में को बहुत बड़ा अशातना है । इसका
स्वाध्याय तथा स्वाध्याय में अस्वाध्याय ज्ञान विस्तृत वर्णन आवश्यक निर्युक्ति में मिलता है ।
काल प्रतिलेखना का एक अर्थ उत्तराध्ययन टीका में किया गया है -- समय का ज्ञान । उस समय कालप्रतिलेखना, नक्षत्रों की गति से रात्रि का कालज्ञान तथा सूर्य की छाया या आतप से दिन के समय का ज्ञान किया जाता था । प्रस्तुत अध्ययन के १६२० वें श्लोक में इसका स्पष्ट संकेत मिलता है ।
कालज्ञान के लिए धूलघड़ी एवं जलघड़ी का बाद में विकास किया गया । वर्तमान में दीवारघड़ी, जेबघड़ी, कंठघड़ी, पेनघड़ी आदि का विकास हुआ है। पाश्चात्य देशों में डिस्पोजल सोसायटी के विकास के साथ और भी अनेक प्रकार की घड़ियों का विकास हो रहा है । आगमों में वर्णन मिलता है कि श्वासोच्छ्वास की संख्या के आधार पर भी मुनि काल का ज्ञान कर लेते थे ।
वर्तमान में विज्ञान ने जैविक घड़ी के बारे में बहुत खोज की है। उनके अनुसार हर व्यक्ति के भीतर एक अपनी घड़ी है जिसके माध्यम से वह अपनी दिनचर्या संपादित करता है ।
काल की प्रतिलेखना के संदर्भ में हम इस बात को भी समझ सकते हैं कि काल के अनुसार हमारा मूड भी बदलता है । सबेरे व्यक्ति इतना क्रोधित नहीं हो सकता जितना दोपहर को । अतः मंत्रणा या सलाह का समय प्रातःकाल या सायंकाल रखा गया है । इस प्रकार हम व्यापक रूप से इस विषय के बारे में सोचें तो कहा जा सकता है कि समय की पहचान हमारे जीवन की सफलता का राज है ।
000
( शेषांश पृष्ठ ३७ का )
३. लेखक की अप्रकाशित कृति - "प्राचान भारतीय इतिहास कालक्रम" में एतद्विषयक विस्तृत चर्चा की गई है ।
४. महावीर निर्वाण बाद ४७० वें वर्ष में विक्रमावित्य का होना और शकराजा तक ६०५ वर्ष ५ माह बीतने का उल्लेख क्रमशः 'तपागच्छ पट्टावली" और " तित्थोगाली पइन्नय" आदि ग्रंथों में भी पाया जाता है ।
५. जैन विश्व भारती के ग्रंथागार में भी नेपाल से प्राप्त "निमित्तशास्त्र" नामक एक ज्योतिष ग्रंथ (क्रमांक ४५४ अ ) को हस्तलिपि है जिसमें संख्याप्रकरण (पत्रक ६०) दिया है किन्तु प्रतिलिपि अपूर्ण है और अस्पष्ट पाठ को छोड़ दिया गया है । अतः संवत्सर संबंधी उल्लेख अस्पष्ट है ।
४०
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
तुलसी प्रज्ञा
www.jainelibrary.org