Book Title: Tulsi Prajna 1990 06
Author(s): Nathmal Tatia
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 42
________________ काल : एक अनुचिन्तन समणी कुसुमप्रज्ञा हमारा व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व सौरमंडल से प्रभावित होकर चलता है। उसकी गतिविधि से हमारी हर क्रिया प्रभावित होती है। ज्योतिषशास्त्र के अनुसार हमारे भाग्य की निर्मिति में मुख्य हेतु सौरमंडल बनता है । सौरमंडल की गति के आधार पर काल का विभाजन होता है। सूर्य की उत्तरायण और दक्षिणायण गति के आधार पर ही पूरा ऋतुचक्र बनता है। जैन दर्शनानुसार षड्द्रव्यों में काल के बारे में सभी जैनाचार्य एक मत नहीं हैं। इसे अस्तिकाय के अन्तर्गत परिगणित न करके औपचारिक द्रव्य माना है। श्वेताम्बर आचार्य काल के दो भेद मानते हैं, नैश्चयिक और व्यावहारिक। नैश्चयिक काल सब वस्तुओं पर परिणमन करता है अतः परिवर्तन का ज्ञान काल के आधार पर ही होता है । पाश्चात्त्य विद्वानों ने Space and time के आधार पर ही सब पदार्थों की व्याख्या की है। आइंस्टीन के अनुसार आकाश और काल पदार्थ के धर्म हैं। उनका मानना है कि काल आकाश सापेक्ष है। काल की लम्बाई के साथ आकाश का भी प्रसार हो रहा है। स्थानांग सूत्र में काल के चार प्रकार बताए हैं । १. प्रमाणकाल २. यथायुनिवत्तिकाल, ३. मरणकाल ४. अध्वाकाल । सूर्य, चंद्र आदि से सम्बन्धित काल अध्वाकाल कहलाता है । प्रस्तुत प्रसंग में यही काल विमर्शनीय है। ___आचार्य उमास्वाति ने काल ज्ञान के पांच हेतु बतलाए हैं ---१. वर्तना, २. परिणाम, ३. क्रिया, ४. परत्व, ५. अपरत्व । नैयायिकों के अनुसार परत्व आदि काल के लिंग हैं। वैशेषिक दर्शन ने पूर्व, अपर, युगपत्, अयुगपत, चिर और क्षिप्र ये छह लिंग काल के माने हैं। हमारी सारी प्रवृत्तियों का केन्द्रीय तत्त्व काल है। काल के आधार पर ही सारी दिनचर्या निश्चित होती है। इसीलिए भगवान महावीर ने आगमों में स्थान-स्थान पर काल का महत्त्व प्रतिपादित किया है। निम्न सन्दर्भ इस बात की पुष्टि भी करते हैं : १. कालं संपडिलेहए २. कालेण निक्खमे भिक्खू ३. अकालं च विवज्जेत्ता ४. सश्काले चरे भिक्खू तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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