Book Title: Tulsi Prajna 1990 06
Author(s): Nathmal Tatia
Publisher: Jain Vishva Bharati

View full book text
Previous | Next

Page 46
________________ स्फुरण हुआ तो वे सोचने लगे शान्तमिदमाश्रमपदं स्फुरति च बाहुः कुतः फलमिहास्थ । अथवा भवितव्यानां द्वाराणि भवन्ति सर्वत्र ॥ अर्थात् इस शान्त तपोवन की भूमि में मेरी दाहिनी भुजा क्यों फड़क रही है ? यहां भला क्या मिलने वाला है ? पर हां, जो होनी होती है ( वह तो कहीं भी होकर रहती है) उसके द्वार सर्वत्र होते हैं। यहां पर दुष्यन्त को बाहु-स्फुरण शकुन में विश्वास है, पर शान्त वन में फल प्राप्ति में आशंका है । अतः वह भवितव्य के प्रति विश्वस्त हो गया है । सप्तम अंक में मारीच के तपोवन में प्रविष्ट होते समय दुष्यन्त की दाई बाहु में पुनः स्फुरण होता है । दुष्यन्त कह उठता है - " अपने मनोरथ पूरे होने की तो मुझे कोई आशा नहीं हैं, फिर भी तुम व्यर्थ ही क्यों फड़क रही हो, मेरी भुजा ! सच है, जो आई हुई लक्ष्मी को ठुकरा देता है, उसे पीछे ऐसे ही रोना- झींकना पड़ता है ।"" यहां पर बाहु-स्पन्दन मनोरथ पूर्ति की सूचना दे रहा है, पर ठुकराई हुई लक्ष्मी को पुनः पाने की उसे आशा ही नहीं रही । पंचम अंक में दुष्यन्त के सामने उपस्थित होने पर शकुन्तला के दक्षिण नेत्र में स्फुरण होता है, जो शकुन्तला के भावी अनिष्ट की सूचना है । शाप के वशीभूत दुष्यन्त उसे पहचानने से मना कर, स्वीकार नहीं करता है, अतः शकुन्तला को अनेकों कष्ट सहने पड़ते हैं । भारतीय परम्परा के अनुसार मनुष्य के जीवन में आने वाले दिन-रात, पूर्वनियत हैं, जिसके भाग्य में जो लिखा होता है, वह होकर रहता है ।" भाग्य जिसे दैव, भवितव्य, विधि कहा गया है, में तत्कालीन नागरिकों की अटल आस्था थी । दुर्देव के शमनार्थ मनुष्य तीर्थादि भी जाते थे । कण्व अतिथि सत्कार का काम शकुन्तला को सौंपकर उसके खोटे ग्रहों की शांति के लिए सोमतीर्थ गये । शकुन्तला से दुष्यन्त के विषय में पूछते हैं कि - "ये कौन हैं ? है -- " वत्स ! ते भाग्यधेयानि पृच्छ !” " लोगों का पुण्य करने कार्य का पुण्य फल मिलता है ।" सप्तम अंक में भरत जब तब शकुन्तला कहती में विश्वास था कि पुण्य शकुन्तला व दुष्यन्त के प्रणय-जीवन में उतार-चढ़ाव वस्तुतः उनके पूर्व कर्मों का फल है । प्रिय की स्मृति में डूबी शकुन्तला द्वार पर आये ऋषि दुर्वासा के आगमन सूचक शब्द नहीं सुन पाती, अतः ऋषि क्रुध होकर उसे शाप देते हैं । यह शकुन्तला के ही कर्म का फल है कि उसे दुष्यन्त पहचानने से मना कर देते हैं । भाग्य में विपदा होने से शकुन्तला की अंगूठी भी शक्रावतार में गिर जाती है, सप्तम अंक में मारीच के तपोवन में शकुन्तला को देखकर दुष्यन्त उसके पांवों में गिरकर क्षमा मांगते हैं, इस पर शकुन्तला अपने दुःख का कारण अपने पूर्व कर्मों को ही बताती है - 'उत्तिष्ठतु आर्यपुत्रः ! --- नूनं में सुचरितप्रतिबन्धकं पुराकृतं तेषु दिवसेषु परिणामसुखमासीद् येन सानुक्रोशाऽप्यार्यपुत्रो माये बिरसः संवृतः' । कर्मविपाक उस समय लोक प्रचलित धारणा थी । मालविका के पूर्व जन्म के कर्मों का फल, या उसके भाग्य का खेल है, १११२ h तुलसी प्रज्ञा ४२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74