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ग्रथित करती है इसलिए ग्रंथि है, वह मूढ़ता को पैदा करती है, इसलिए मोह है, वह मृत्यु की ओर ले जाती है इसलिए मृत्यु है, वह विपुल वेदना उपलब्ध करवाती है इसलिए नरक है।
हिंसा को दंड शब्द के द्वारा भी व्याख्यायित किया गया है । ठाणं" में तीन प्रकार के दंडों का उल्लेख मिलता है---'तओ दंडा पण्णत्ता, तं जहा-मणदंडे, वइदंडे, कायदंडे ।' इसके साथ ही पांच प्रकार के दंड भी बतलाए गए हैं ---"पंच दंडा पण्णत्ता', तं जहाअट्ठादंडे, अणट्ठादंडे, हिंसादंडे, अकस्मादंडे, दिट्ठीविप्परियासियादंडे ।" उत्तराध्ययन में भी इस रूप में हिंसा को समझाया गया है । आधुनिक संदर्भ में संकल्पजा-आक्रमणात्मक हिंसा, विरोधजा-सुरक्षात्मक हिंसा, उद्योगजा-अर्जनात्मक हिंसा और आरंभजानिर्वाहात्मक हिंसा आदि विविध प्रकारों को समझा जा सकता है।
हिंसा के परिणाम-अब प्रश्न उठता है कि उपर्युक्त प्रकार की हिंसा करने से क्या प्राप्त होगा। तब उसके परिणामों की चर्चा की गई। भगवान् महावीर ने कहा- (हिंसक व्यक्ति) केवली प्रज्ञप्त धर्म को नहीं सुन सकता, आत्मा विशुद्ध बोधि का अनुभव नहीं करता, मुंड होकर, घर छोड़कर सम्पूर्ण अनगारिता साँधुपन को नहीं पाता, सम्पूर्ण ब्रह्मचर्य (आचार) को प्राप्त नहीं करता, संपूर्ण संयम के द्वारा संयत नहीं होता । संपूर्ण संवर के द्वारा संवृत्त नहीं होता, इसी प्रकार अनेकानेक आध्यात्मिक उपलब्धियों से वंचित रह जाता है । बौद्ध साहित्य में भी हिंसा के दुष्परिणामों का वर्णन मिलता है-हिंसक व्यक्ति जगत् में नारकीय जीवन का और अहिंसक स्वर्गीय जीवन का सृजन करता है। अंगुत्तर निकाय में कहा गया है - "भिक्षुओं तीन धर्मों से युक्त प्राणी ऐसा होता है जिसे नरक में जाना पड़ता है। या तो स्वयं हिंसा करे चाहे दूसरों से करवाए अथवा करने का अनुमोदन करे।" अतश्च ज्ञाताधर्मकथा में-"हिंसैव दुर्गतेरिं, हिंसव दुरितार्णवः हिसैव, नरकं घोरं, हिंसैव गहनं तमः । यत्किचित्संसारे शरीरिणां, दुःखशोकमय बीजम् ।"
आयारो में कहा गया है-"आरंभजं दुक्खमिणंति णच्चा" दुःख हिंसा से उत्पन्न होता है— (यह जानकर तू सतत अप्रमत्त रहने का अभ्यास कर) दूसरा सूत्र--- 'आरंभजीवी ययाणुपस्सी'-आरम्भजीवी मनुष्य को भय का दर्शन (या अनुभव) होता रहता है।
यह सार्वभौम सत्य है कि सभी जीवों में जिजीविषा होती है। कोई भी मृत्यु को प्राप्त नहीं होना चाहता। इसी तथ्य को आर्षवाणी में कहा गया है – “सन्वे जीवा वि इच्छन्ति जीविउं न मरिज्जिउं ।" १९
किसी जीव को यदि जीवनदान देना हमारे हाथ में नहीं तो उसे हम मार किस अधिकार से सकते हैं। बिना अधिकार और निर्दयतापूर्वक जीवों का वध करना इससे तो सामान्य व्यक्ति भी फल निकाल लेगा कि उसे तो नरक ही मिलना चाहिए। यह तर्कसंगत भी है क्योंकि जिस प्रकार का साधन होगा तदनुरूप साध्य सिद्ध होगा। आत्मा यदि दुष्प्रवृत्त है तो निश्चित ही दुःख और भय प्राप्ति का कारण बनेगी तथा उससे सब दुःखदायी बन जाएगा।
खण्ड १६, अंक १ (जून, ६०)
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