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चिताओं का भार - नाना प्रकार की शांति भंजक चिताएं इस प्रकार के वृक्ष की शाखाएं है । एक चिंता पूरी ही नहीं होती कि बस दूसरी चिताएं उठ खड़ी होती हैं । जनसामान्य भाषा में कहा गया है
'अर्थानाम दुःख, अजितानां च रक्षणे ।
आए दु:खे, व्यये बुःख, धिगधीः कष्टसंजयाः ॥' इसीलिए चिताओं को परिग्रहवृक्ष के चारों ओर फैली शाखाएं कहा जाता है । छल-प्रपंच - इस परिग्रहवृक्ष की त्वचा है जो कि संग्रह के लिए अपने रंग बदलती है । कामयोग - इस परिग्रह के मद फल और फूल हैं, जो कि गरीब-अमीर सभी को परिग्रह की ओर आकृष्ट करते रहते हैं । महावीर ने प्रतिपादन किया कि 'काया" दुरतिक्रमा' काम दुलंध्य है । परिग्रह का मूल है काम काम भोगों की आसक्ति ही व्यक्ति को अर्थसंग्रह के लिए प्रेरित करती है । भोग ही नहीं, तत्पश्चात् धन से कुछ असंयत लोगों के उपभोग के लिए सन्निधि और संचित करता है । अतः भगवान् महावीर" ने सीधी सरल भाषा में कहा - 'कामेसु गिद्धा णिचयं करेति ।'
हमने देखा कि दुःख गर्भित परिग्रहण ( संग्रह की मनोवृत्ति) आदि, अंत और मध्य सभी स्थितियों में कष्टदायी बनती है । आज जितनी भी विश्वशांति विरोधी घटनाएं घटित हो रही हैं उनका मूलभूत कारण है - परिग्रह से जन्मी सामाजिक, आर्थिक विषमता ।
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परिग्रह के परिणाम - आध्यात्मिक दृष्टिकोण - अध्यात्म की आधारशिला हैत्याग या विसर्जन । इसके प्रतिपक्षी परिग्रह से भोगवादी संस्कृति का निर्माण होता है । परिग्रहग्रस्त व्यक्ति अध्यात्म के आचरण से कोसों दूर ही रहता है । उसे सुनना भी कम पसंद करता है । उस सही स्थिति का एक सूत्र में चित्रण किया गया है- 'ण एत्थ " तवोवा, दमो वा नियमो वा दिस्सति' । परिग्रह में अनुरक्त महापुरुष में न तप, न दम और न नियम देखा जाता है। तप का प्रासंगिक अर्थ है -- स्वादविजय, आसनविजय आदि । दम का अभिप्राय है- इन्द्रिय विजय, कषाय विजय आदि और नियम से तात्पर्य है योग / उपभोग / सामग्री का सीमांकन |
प्रयोजनमूलक दृष्टिकोण- - प्रश्न व्याकरण में कहा गया- परलोके च निष्टाः ।' इस संसार में हम कोई भी प्रवृत्ति करते हैं उसके पीछे हमारा उपयोगिता का दृष्टिकोण रहता है, प्रयोजन सिद्धि की बात रहती हैं । हम चाहते हैं कि हमारा परलोक अच्छा हो, यहां भी सुख से रह सकें। लेकिन परिग्रह दोनों ही प्रयोजनों को नष्ट कर देता है तथा संसार परिभ्रमण का कारण बनता है । आयारो में स्पष्ट उल्लेख मिलता है - ' जे गुणे से मूलट्ठाणे, जे मूलट्टाणे से गुणे ।'
गुण से तात्पर्य - इन्द्रिय विषयों से है । ये लोभ हेतुक हैं अर्थात् इनसे कषाय बढ़ते हैं । कषाय से संसार बढ़ता है-जन्म मरण की परंपरा पड़ती है। इससे बंधन मुक्ति का प्रयोजन सिद्ध नहीं होता है ।
प्राकृतिक दृष्टिकोण प्रवृत्ति संतुलन का सबसे बड़ा शत्रु है - परिग्रह भाव | इससे
तुलसी प्रज्ञा
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