Book Title: Tulsi Prajna 1990 06
Author(s): Nathmal Tatia
Publisher: Jain Vishva Bharati

View full book text
Previous | Next

Page 36
________________ हिन्दी जैन काव्य का साधनात्मक स्वरूप डॉ० मंगल प्रकाश मेहता * निर्मित हुआ है, 'भक्ति' शब्द 'भज' धातु में स्त्रीलिंग 'स्तन' प्रत्यय लगाने से जिसका अर्थ है भजना | व्यास ने 'पूतादिएवानुराग इति पराशर्यः पूजादि में प्रगाढ़ प्रेम को ही भक्ति माना है। शांडिल्य अपने भक्ति सूत्र में 'सा परानुरक्तिरीश्वरे' ईश्वर के प्रति परम अनुरक्ति को ही भक्ति कहते हैं । भागवत में निष्काम भाव से स्वभाव की प्रवृत्ति का सत्यमूर्त भगवान् में लय हो जाना भक्ति कहा गया है । इस प्रकार भक्ति द्वारा इष्टदेव और भक्त का अटूट सम्बन्ध स्थापित होता है । भक्ति, भक्त और भगवान् के प्रगाढ़ सम्बन्ध की आधारशिला है । भक्ति, ज्ञान और कर्म भक्ति का ज्ञान और कर्म के साथ अटूट सम्बन्ध है | विचारपूर्ण कर्म गति है । किसी गति के साथ जब विचार सम्मिलित हो जाता है तब उसकी संज्ञा कर्म होती है । तमोगुणी व्यक्ति विचारशून्य होता है, अतः जड़ कहलाता है। जड़त्व के ऊपर राग-द्वेषपूर्ण रजोगुण की स्थिति है । रजोगुणी व्यक्ति क्रियाशील होता है । रजोगुण से ऊपर तत्वगुण की स्थिति है । यह ज्ञान और प्रकाश का क्षेत्र है । तम रज में तथा रज सत् में विलीन हो जाता है । सत् भाव में विलीन होता है । भक्ति एक भाव ही है । अतएव कर्म और ज्ञान का पर्यवसान भक्ति में होता है । कर्म और ज्ञान दोनों ही भक्ति की उपलब्धि के लिए साधन बनते हैं । भक्ति स्वयं आनंदरूप प्रभु की प्राप्ति के लिए साधन रूप हैं । जन भक्ति का स्वरूप नारद भक्तिसूत्र और शांडिल्य - सूत्रों की भांति जैन भक्ति परम्परा में किसी भक्तिसूत्र का निर्माण नहीं हुआ, किन्तु अनेक जैन सैद्धांतिक ग्रन्थों में भक्ति सम्बन्धी विवेचन उपलब्ध होता है । जिनसेनाचार्य के मतानुसार 'अर्हत्सु योतुरागो यश्चाचार्ये बहुश्रुते यच्च । प्रवचनविनयश्चासौ चातुविध्यं मजति भक्तेः । अर्थात् अर्हन्त में जो अनुराग है, आचार्यों में जो अनुराग है, बहुश्रुत अनेक शास्त्रों के ज्ञाता उपाध्याय परमेष्ठी में जो अनुराग है और प्रवचन में जो विनय है वे क्रमशः अर्हद् भक्ति, आचार्य भक्ति, बहुश्रुत भक्ति और प्रवचन भक्ति नामक चार भावनाएं हैं । * शोधाधिकारी ( सहायक सम्पादक --- - 'तुलसी प्रज्ञा'), जैन विश्व भारती, लाडनूं ( राज० ) ३२ Jain Education International For Private & Personal Use Only तुलसी प्रज्ञा www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74