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अपरिग्रह-दर्शन समणी मल्लिप्रज्ञा
जैन-आचार-दर्शन के दो प्राणभूत तत्व रहे हैं-अहिंसा और अपरिग्रह । किन्तु दुर्भाग्य से दूसरे तत्त्व को गौण कर दिया यानी भुला दिया गया। इसका परिणाम यह हुआ कि अहिंसा भी निस्तेज होती चली गई और स्वयं सही स्थान पर प्रतिष्ठित भी नहीं हो सकी, इससे हिंसा को खुला समर्थन मिलने लगा और इसका सिलसिला बढ़ता ही गया । आज तो स्थिति यह बन गई है कि पूरी मानव जाति विनाश के कगार पर खड़ी है। ऐसी भयावह स्थिति में हिंसा का मूल कारण है "परिग्रह"। इस मूलभूत तथा यथार्थ तथ्य पर बारीकी से चिंतन-मनन व विश्लेषण करने की जरूरत है। इतना ही नहीं, अपरिग्रह के सिद्धांत को हृदयंगम करने के लिए भी हिंसा और परिग्रह का स्वरूप तथा इनका संबंध निरूपण अत्यावश्यक है।
हिंसा का अर्थ एवं स्वरूप-भारतीय चितन में हिंसा पर बहुत विचार हुआ। यहां कुछ महत्त्वपूर्ण बिंदुओं का विश्लेषण जरूरी है। प्रवचनसार' में हिंसा की परिभाषा की गई है
___ 'अशुद्धोपयोगी हि छेदः....."स एव च हिंसा ।' ___ उपर्युक्त कथ्य में दो शब्द व्यवहृत हुए हैं। १. अशुद्ध और २. उपयोग । तात्पर्य यह है कि रागद्वेष युक्त प्रवृत्ति हिंसा है। कोई भी व्यक्ति रागावश हिंसा में प्रवृत्त नहीं हो सकता । इसका मतलब हुआ कि भीतर में बैठा राग (परिग्रह) बाहर में होने वाली हिंसा के लिए आहार का कार्य करता है। इसी संदर्भ में एक ओर महत्त्वपूर्ण परिभाषा को प्रस्तुत किया जा सकता है
_ 'प्रमत्तयोगात्प्राणव्यपरोपणं हिंसा ।२ दो तत्त्व विश्लेषणीय हैं। एक तो प्रमत्तयोग और दूसरा प्राणव्यपरोपण। इस आधार पर ही जैन विचारणा में हिंसा के दो रूप बतलाए जाते हैं। हिंसा का अभ्यान्तर पक्ष प्रमाद कहलाता है और बाह्य पक्ष प्राणवध के रूप में प्रकट होता है। पारिभाषिक रूप से इसे भावहिंसा और द्रव्यहिंसा कहा जा सकता है। इस प्रकार परिग्रह की पृष्ठभूमि में ही हिंसा का अर्थ निर्धारण किया जा सकता है।
भगवान् महावीर' ने हिंसा का दार्शनिक तथा व्यावहारिक दोनों रूपों में निरूपण किया है। यथा-........ एस खलु गंथे, एस खलु मोहे, एस खलु मारे, एस खलु णरए।" यह हिंसाग्रंथि है, मोह है, मृत्यु है और नरक है। हिंसा प्राणी के चित्त को
तुलसी प्रज्ञा
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