Book Title: Tulsi Prajna 1990 06
Author(s): Nathmal Tatia
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 22
________________ पूर्ण हो जाती है, फिर किसी अन्य क्रिया का जन्म नहीं होता। इस प्रकार अनवस्था दोष का निराकरण हो जाता है। जैन मत जैन मत में प्रामाण्य और अप्रामाण्य दोनों की उत्पत्ति परतः होती है लेकिन ज्ञप्ति स्वतः और परतः दोनों होती है । जैन न्याय में बताया गया है कि प्रामाण्य का निश्चय अभ्यास दशा में स्वतः और अनभ्यास दशा में परतः होता है । आ० विद्यानंदी ने प्रमाण परीक्षा में लिखा है कि अभ्यास होने से प्रामाण्य का निर्णय स्वतः सिद्ध हो जाता है और अनभ्यास के कारण प्रामाण्य का निर्णय पर से होता है । आचार्य माणिक्य नंदी ने परीक्षामुख में कहा है कि प्रामाण्य स्वतः, परतः दोनों होता है यानी ज्ञप्ति अभ्यास दशा में स्वतः किन्तु अनभ्यास दशा में किसी स्वतः प्रमाणभूत ज्ञानान्तर से यानी परतः होती है । जैसे जिन स्थानों का हमें परिचय होता है उन जलाशयादि में होने वाला जल ज्ञान या मरीचिका ज्ञान स्वयं अपनी प्रमाणता या अप्रमाणता ज्ञापित कर देता है किन्तु अपरिचित स्थानों में होने वाले जल ज्ञान की प्रमाणता का ज्ञान घटचेटिका पेटक' आदि उदाहरणों से जान सकते हैं । जैसे—पनिहारियों का पानी भरकर लाना, मेढकों का टर्राना, शीतल वायु का स्पर्श, कमलों की सुगन्ध आदि परनिमित्तों से जल ज्ञान की सत्यता का निर्णय किया जाता है । इसी तरह जिस वक्ता के गुण और दोषों का हमें परिचय है, उसकी प्रमाणता या अप्रमाणता हम स्वतः जान लेते हैं पर अन्य के वचनों की प्रमाणता के लिए हमें दूसरे संवादी कारणों की अपेक्षा रहती है। प्रामाण्य और अप्रामाण्य सर्वप्रथम तो परतः ही गृहीत होते हैं। आगे परिचय और अभ्यास के कारण अवस्था विशेष में भले ही स्वतः हो जायें । गुण और दोष दोनों वस्तु के धर्म हैं । वस्तु या तो गुणात्मक होती है या दोषात्मक । अत: गुण का स्वरूप कहकर उसका अस्तित्व उड़ाया नहीं जा सकता । दोनों की स्थिति बराबर होती है । यदि काच का मल आदि दोष है तो निर्मलता आदि गुण है । अतः गुण और दोष रूप कारणों से उत्पन्न होने के कारण प्रामाण्य और अप्रामाण्य दोनों ही उत्पत्ति की दृष्टि से परतः ही हैं। किन्तु प्रथम प्रमाण के प्रामाण्य के अवबोधक प्रमाण की प्रामाणिकता परतः नहीं होती क्योंकि संवादक प्रमाण किसी दूसरे प्रमाण का ऋणी बनकर सही जानकारी नहीं देता । कारण कि उसे जानकारी देने के समय उसका ज्ञान करना नहीं है अतः उसके स्वतः ता परतः होने का प्रश्न ही नहीं उठता। बौद्ध मत बौद्ध दार्शनिकों के प्रामाण्य को परतः और अप्रामाण्य को स्वतः मानने का पक्ष सर्वदर्शन में समुल्लिखित है किन्तु मूल बौद्ध ग्रन्थों में इसका कोई उल्लेख प्राप्त नहीं होता। आचार्य शांतरक्षित ने बौद्धों का पक्ष अनियमवाद के रूप में स्वीकार किया है। वे कहते हैं--प्रामाण्य और अप्रामाण्य दोनों स्वतः, दोनों परतः, प्रामाण्य स्वतः, अप्रामाण्य परतः और अप्रामाण्य स्वतः, प्रामाण्य परतः इन चार नियम पक्षों के अतिरिक्त पांचवा अनियम पक्ष भी है जो प्रामाण्य और अप्रामाण्य दोनों को अवस्था विशेष में स्वतः और अवस्था विशेष में परतः मानने का है । यही पक्ष बौद्धों को इष्ट है। अस्तु, उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि प्रमाण की तरह प्रामाण्य के बारे में भी तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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