Book Title: Tulsi Prajna 1990 06
Author(s): Nathmal Tatia
Publisher: Jain Vishva Bharati

View full book text
Previous | Next

Page 19
________________ १. सांख्य मत प्रामाण्य और अप्रामाण्य २. मीमांसा मत प्रामाण्य स्वतः मीमांसा मत अप्रामाण्य परतः ३. न्याय-वैशैशिक प्रामाण्य और अप्रामाण्य परतः ४. जैन मत प्रामाण्य और अप्रामाण्य परतः (उत्पत्ति की दृष्टि से) जैन मत प्रामाण्य और अप्रामाण्य परतः और स्वतः दोनों (ज्ञप्ति की दृष्टि से) ५. बौद्ध मत प्रामाण्य परतः बौद्ध मत अप्रामाण्य स्वतः सांख्य मत प्रामाण्य और अप्रामाण्य को स्वतः मानने का पक्ष "सर्व दर्शन संग्रह" में सांख्य के नाम से उल्लिखित है । मूल सांख्य ग्रंथों में इसका उल्लेख नहीं मिलता । सांख्य के स्वतः प्रामाण्य और स्वतः अप्रामाण्य के सिद्धांत का आधार उसकी तत्व मीमांसा ही हो सकती है। सांख्य दर्शन के दो मुख्य सिद्धांत सत्कार्यवाद और बुद्धि की त्रिगुणात्मकता से प्रामाण्यवाद का यह मत सहज ही आपादित होता है । सत्कार्यवाद के अनुसार सांख्य दर्शन कोई नई उत्पत्ति स्वीकार नहीं करता । व्यक्त जगत् में जो कुछ भी उत्पन्न होता है, वह अव्यक्त रूप से अपने कारण में पहले से ही विद्यमान होता है । अत: ज्ञान का प्रामाण्य और अप्रामाण्य भी कोई नवीन उत्पत्ति न होकर अपने कारण में पहले से ही विद्यमान होते हैं । प्रामाण्य और अप्रामाण्य ज्ञान के ही गुण हैं। किसी भी वस्तु के तथा उसके गुणों के कारण भिन्न-भिन्न नहीं हो सकते अतः ज्ञान का प्रामाण्य तथा अप्रामाण्य स्वतः है। मीमांसक मत मीमांसक के मतानुसार प्रामाण्य स्वतः तथा अप्रामाण्य परतः होता है । प्रभाकर के अनुसार सभी ज्ञान प्रमा रूप हैं । चूंकि प्रत्येक ज्ञान अपने ही विषय को प्रकाशित करता है, किसी भी ज्ञान के लिए यह संभव नहीं कि वह अपने विषय से भिन्न किसी अन्य विषय को प्रकाशित करे, यही उसका स्वतः प्रामाण्य है। या जिन कारणों से ज्ञान उत्पन्न होता है, उन्हीं कारणों से उसका प्रामाण्य भी उत्पन्न होता है। प्रभाकर व्यावहारिक जीवन में प्रमा और अप्रमा के भेद को स्वीकार करते हैं । अर्थात् किसी ज्ञान के आधार पर व्यवहार करने में साफल्य मिले वहां वह प्रमा रूप तथा असफलता मिलती है तो वह ज्ञान अप्रमा रूप होगा। इस प्रकार प्रभाकर प्रामाण्य को दो दृष्टियों से देखते हैं । ज्ञान की दृष्टि से स्मृति भिन्न सभी ज्ञान प्रमा है तथा व्यवहार की दृष्टि से अविसंवाद तथा प्रवृत्ति की सफलता प्रामाण्य के द्योतक हैं । इनका कथन है कि अप्रामाण्य परत: है क्योकि पहले सभी ज्ञान प्रमाण रूप ही उत्पन्न होते हैं, बाद में बाधक कारण के आगमन या ज्ञान की उत्पादक इन्द्रिय में दोष का ज्ञान होने से वह अप्रमाण हो जाता है । चूंकि अप्रामाण्य का ज्ञान स्वतः नहीं होता, ज्ञानान्तर खण्ड १६, अंक १ (जून, ६०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74