________________ 190 बौद्धधर्मरथ का दृष्टांत बस है। रथ पइयों, धुरी और लकड़ी के ढांचे का बना हुआ है। इन भिन्न भिन्न भागों के सिवाय रथ में भौर कुछ नहीं होता और जिस तरह 'रथ' यह शब्द उसके भिन्न भिन्न भागों का इकठ्ठा ज्ञान कराने के लिए वर्ता जाता है उसी प्रकार ' मैं ' यह शब्द भी भिन्न भिन्न संस्कारों और प्रवृत्तियों का इकठे ज्ञान होने के लिए वर्ता जाता है। ऊपर निर्दिष्टित बौद्धमतानुसार देह के अन्त के साथ 'मैं' का भी अंत होना चाहिए कारण कि ' मैं ' से जिसका ज्ञान होता है उस के आत्मा के संस्कार और प्रवृत्तिएं क्षणिक होने से उनका आरंभ और अंत तत्काल ही होता है; और यह संस्कार और प्रवृत्तिएं भिन्न हों ऐसा आत्मा का अस्तित्व नहीं होता। परन्तु यहां अब तत्वज्ञान की एक कल्पना अथवा युक्ति का आश्रय लेकर इस अध्यात्म ज्ञान के वितर्क को संस्कार चक्र के सिद्धान्त से मिलाया गया है और इससे ही इस अनात्मवाद का और लोकसान्य पुनर्जन्म के सिद्धांत की भी ऐक्यता की गई है। इस में बुद्धने तत्वज्ञान के कर्म के सिद्धान्त का उपयोग किया है। जिन प्रवृत्तियों से मायिक 'मैं ' अर्थात् आत्मा बनता है उन प्रवृत्तियों का परिणाम कर्म में होता है और कर्म क्षणिक् नहीं परन्तु नित्य हैं। उस मायिक आत्मा का नाश भी पुनः स्थित रहता है और इस प्रकार स्थित रहे हुए कर्म में से नई प्रवृत्तिएं जन्म लेती हैं