________________ 146 एकेश्वर वाद. तो भी अपनी समाज का निर्माण दृढ़ रखने के लिए तथा उसके उत्कर्ष के लिए अपने विरोधियों पर वह प्रेम नहीं रखते हों ऐसा हमें मानना पड़ता है। यज्ञ के अंग रूप किए जाने वाले भोजन समारंभ पर से हम समझ सकते हैं कि जिन देवताओं की, समाज की रक्षा तथा अभिवृद्धि के लिए वह प्रार्थना करते थे उन देवताओं पर वह थोड़ा बहुत प्रेम रखते थे। परन्तु यज्ञ को मुख्य धर्म क्रिया रूप मानने वाले सब धर्मों के इतिहास से प्रतीत होता है कि वह देवों का तथा उनके पूजा करने वालों का परस्पर प्रेम इष्ट सिद्धि का आधार है, ऐसा वह नहीं मानते थे; परन्तु क्रिया यथा विधि करने पर तथा प्रतिज्ञा के पालन करने पर इष्ट सिद्धि का आधार है ऐसा वह मानते। इस प्रकार प्रथम से ही मनुष्य अपने पड़ोसियों पर तथा ईश्वर पर थोड़ा बहुत प्रेम रखते थे और इस प्रेम के अस्तित्व से इतने अंश में ईसाई धर्म की दूसरे धर्मों के साथ समता है, यह बात बहुत ही सूक्ष्म रीति पर देखने से प्रतीत हो जाती है। परन्तु प्राचीन समाज के मनुष्यों में रहे हुए इस प्रेम में, और ईसाई धर्म में एक मुख्य सत्य रूप तथा मार्गदर्शक सिद्धान्त रूप स्वीकार किए गए प्रेम में बहुत फर्क है तथा इस प्रेम की भावना से पूजा की, समाज मनुष्य और दिव्य व्यक्ति की कल्पना में किए गए परिवर्तन पर से हम को उसकी महत्ता का ख्याल आसकता है।