________________ तुलनात्मक धर्मविचार. . 153 स्पष्ट होती जाती है / मनुष्य व्यक्ति को गिराने वाले सब विषय इस क्रम में आपत्ति जनक होते हैं। राजकीय समाज के हित की वृद्धि के लिये जो धर्म उत्पन्न हुए हैं उसमें मनुष्य व्यक्ति का मूल्य कम ही लगाया गया होता है और इस लिये दिव्य व्याक्त की कल्पना भी उसमें उच्च हो नहीं सकती / जहां दिव्य शक्ति की उच्च से उच्च कल्पना की जाती है वहीं मनुष्य मात्र व्यक्ति का भी योग्य मूल्य लगाया जाता है और पश्चात्ताप करने वाला एक भी अपराधी का प्राण बचता है तो उनके आनन्द की सीमा नहीं रहती / जहां व्यक्ति से स्वतंत्र धर्म की भावना उन्नति पर होती है वहां भी ऐसा देखने में आता है / परन्तु जहां एकेश्वरवाद, का संपूर्ण विकास नहीं हुआ होता वहां मनुष्य शक्ति की कीमत बराबर नहीं लगाई जाती ऐसा नहीं होता / जिन धर्मों में यज्ञ को ही मुख्य धार्मिक किया के रूप में माना जाता है वहां समाज के ही हित के लिये यज्ञ किये जाते हैं और इनका उद्देश्य समाजकी आफतें दूर करना तथा समाज की समृद्धि के रक्षण करनेका होता है। ऐसा होने पर देवताओं को भी समाज के मनुष्यों की तरह अपनी इष्ट सिद्धि के साधन रूप समाज मानता है। याहूदियों के एकेश्वरवाद में वह अपने देवको परमऐश्वर्यवान् मानने पर भी उस देव के साथ व्यक्ति का संबंध हो नहीं सकता ऐसी भावना के लेए वहां मनुष्य व्यक्ति का मान कम हो गया है। वहां मनुष्य